ओलंपिया में महिलाओं के प्रवेश पर था मृत्युदंड का प्रावधान, अब बंधनों को तोड़ पुरुषों के साथ कर रही कदमताल

कभी बैन थी ओलंपिक में महिलाओं की एंट्री

ओलंपिया में महिलाओं के प्रवेश पर था मृत्युदंड का प्रावधान, अब बंधनों को तोड़ पुरुषों के साथ कर रही कदमताल

भारत की कंवलजीत संधु भारत की पहली अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता बनी। उन्होंने 1970 के एशियन गेम्स में 400 मीटर दौड़ का गोल्ड जीता।

जयपुर। पुरातन ओलंपिक में महिलाओं की भागीदारी पर पूरी तरह प्रतिबंध रहा और यहां तक कहा जाता है कि ओलंपिया में महिलाओं के प्रवेश पर मृत्युदंड तक की सजा का प्रावधान था लेकिन आज खेलों के क्षेत्र में महिलाएं समाज की रूढ़ियों और बंधनों को तोड़ते हुए पुरुषों के साथ कदमताल करती दिख रही हैं। ओलंपिक खेलों में महिलाओं की एंट्री पहली बार 1900 के पेरिस ओलंपिक से हुई और तब से महिलाएं न केवल वैश्विक खेल मंच पर भागीदारी कर रही हैं, बल्कि प्रतियोगिता, पुरस्कार और प्रोत्साहन में भी महिलाओं को धीरे-धीरे बराबरी का दर्जा मिल रहा है।

पहली बार 1952 में हुई थी एंट्री
ओलंपिक में भारतीय महिलाओं की एंट्री पहली बार 1962 के हेलसिंकी ओलंपिक से हुई और नीलिमा घोष व मैरी डिसूजा देश की पहली महिला ओलंपियन बनी।  हाल ही पेरिस ओलंपिक  में भारत के 110 सदस्यीय दल ने हिस्सा लिया, जिसमें 45 महिला खिलाड़ी शामिल थीं। यही नहीं भारत ने इन खेलों में जो छह पदक जीते, उनमें दो पदक एक महिला खिलाड़ी मनु भाकर ने हासिल किए। बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, मुक्केबाज लवलीना बोरगोहेन, निखत जरीन, वेटलिफ्टर मीराबाई चानू, एथलीट विनेश फोगाट और शूटर महेश्वरी चौहान भले ही पदक नहीं जीत सकीं, लेकिन उन्होंने खेलों के वैश्विक मंच पर पहुंचकर सुर्खियां बटोरी।

गत एशियाड में भारतीय दल में थी आधी महिलाएं
भारत की कंवलजीत संधु भारत की पहली अंतरराष्ट्रीय पदक विजेता बनी। उन्होंने 1970 के एशियन गेम्स में 400 मीटर दौड़ का गोल्ड जीता। चीन में हुए पिछले एशियन गेम्स में तो भारत के 661 सदस्यों के दल में महिलाओं की संख्या पुरुषों के लगभग बराबर थी। इन खेलों में 326 महिला खिलाड़ियों ने देश का प्रतिनिधित्व किया। देश की इन्हीं बेटियों से प्रेरित होकर आज माता-पिता बेटियों को खेलों में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, जो देश में महिला समानता की दिशा में अच्छे संकेत हैं। 

परिवार से मिला पूरा समर्थन : सुरभि मिश्रा 
अंतरराष्ट्रीय स्क्वैश खिलाड़ी सुरभि मिश्रा का कहना है कि हम दो बहनें हैं लेकिन पिता ने कभी बेटे और बेटी का भेद नहीं रखा और हमें पसंदीदा क्षेत्र में आगे बढ़ने के अवसर दिए। सुरभि के पिता कुलदीप मिश्रा खुद राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेटर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब मैंने खेल को अपना करियर बनाया तो पिता का भरपूर सपोर्ट मिला। मैंने देशभर में टूनार्मेंटों में हिस्सा लिया और विदेशों में कई टूनार्मेंटों में इंडिया को रिप्रजेंट किया। परिवार से मिले समर्थन की वजह से ही मुझे कभी आगे बढ़ने में समस्या नहीं आई। सुरभि पिछले कई वर्षों से भारत की स्क्वैश टीम की कोच हैं और छोटी उम्र में स्क्वैश फेडरेशन ऑफ इंडिया की वाइस प्रेसिडेंट भी बनी हैं। खेलों में महिला समानता को लेकर सुरभि ने कहा कि आज समय बदल रहा है। कभी बेटियों को घर के बाहर नहीं निकलने देने वाले पेरेंट्स भी अब अपनी बेटियों को खेलों में आगे बढ़ा रहे हैं। 

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सरकार की ओर से बराबर अवसर : मालती
पूर्व अंतरराष्ट्रीय वालीबॉल खिलाड़ी और शासन सचिवालय में स्पोर्ट्स आॅफिसर पद पर कार्यरत मालती चौहान का कहना है कि प्रदेश सरकार की खेल विकास की नीतियों ने आज खेलों में पुरुष- महिला का भेद मिटा दिया है। माता-पिता अब बेटियों को खेलों में अपना करियर बनाने के लिए प्रोत्साहन दे रहे हैं। राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पदक जीतने पर मिलने वाली बड़ी प्रोत्साहन राशि, पदक विजेता खिलाड़ियों को आउट आर्फ टर्न आधार पर सरकारी नौकरियों में नियुक्ति और खेलों में आगे बढ़ने के लिए हर तरह की सुविधाएं सरकार की ओर से दी जा रही हैं। कभी सिर्फ टीचिंग और नर्सिंग में ही अपना करियर देखने वाली लड़कियां खेलों को अपना करियर बना रही हैं।

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अभी और सुधार की गुंजाइश है: मीमांसा
अंतरराष्ट्रीय वॉलीबॉल खिलाड़ी मीमांसा जाखड़ का कहना है कि देश और प्रदेश में खेलों में महिला समानता की दिशा में कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं, लेकिन यह यात्रा अभी भी जारी है। खेलों में समानता का मतलब केवल पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर देना नहीं है, बल्कि समान संसाधनों, समर्थन और मान्यता प्रदान करना भी है। महिला खिलाड़ियों को अक्सर कम सुविधाएं, कम कोचिंग समर्थन और कम प्रायोजन मिलता है। महिलाओं के खेलों में पुरस्कार राशि अक्सर पुरुषों की तुलना में कम होती है।

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