समस्या है कूड़े के पहाड़ों का निस्तारण

समस्या है कूड़े के पहाड़ों का निस्तारण

देश की राजधानी दिल्ली के लिए कूड़े के पहाड़ भीषण समस्या बन चुके हैं।

देश की राजधानी दिल्ली के लिए कूड़े के पहाड़ भीषण समस्या बन चुके हैं। यह पहली बार है जब दिल्ली स्थित कूड़े के पहाड़ से कचरे को साफ  करने की धीमी गति पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने गंभीर चिंता जताई है। इस मसले पर प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव डा.मिश्रा ने उस समय अपनी नाराजगी व्यक्त की जब वह वायु प्रदूषण से निपटने के लिए गठित विशेष कार्य बल की बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। बैठक में डा. मिश्र ने कचरा निपटान संबंधित मौजूदा कानूनों के सख्ती से लागू किए जाने पर जोर देते हुए कहा कि कचरे से बिजली बनाने की योजनाओं के क्रियान्वयन में नगर निगम की देरी चिंताजनक है और सड़कों और निर्माण गतिविधियों में धूल नियंत्रण के पर्याप्त उपाय किए जाने की बेहद जरूरत है। असलियत यह है कि स्वच्छ भारत मिशन का सबसे बड़ा लक्ष्य दिल्ली में बरसों पुराने कूड़े के ढेरों को खत्म करना था, जो अब पहाड़ की शक्ल ले चुके हैं।

दो अक्टूबर 2014 से शुरू स्वच्छ भारत मिशन में एक अहम पड़ाव एक अक्टूबर 2021 को तब आया था जब एसबीएम-2.0 की शुरुआत के साथ कूड़े के इन पहाडों की समाप्ति का लक्ष्य तय कर यह कल्पना की गई थी कि भविष्य में कभी भी इस तरह की समस्या को उभरने नहीं दिया जाएगा। असलियत तो यह है कि केन्द्र सरकार ने इन कूड़े के ढेरों कहें या पहाड़ों को खत्म करने के लिए जब तीन हजार करोड़ से ज्यादा की राशि की यह योजना प्रारंभ की थी, उस वक्त राज्यों से यह अपेक्षा की गई थी कि अगर इसके क्रियान्वयन में वे बराबर की भागीदारी करेंगे, तो उस दशा में कूड़े के इन पहाड़ों का खात्मा किया जा सकता है। लेकिन दुखदायी यह है कि राजनीतिक दांवपेच के चलते इनका अभी तक खात्मा नहीं हो सका है। यदि आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि बीते तीन सालों में कुल 15 फीसदी ही कूड़े के पहाड़ कम हो सके हैं। आवास और शहरी विकास मंत्रालय भी इसकी पुष्टि करता है। यदि देश में कूड़े के पहाड़ों का जायजा लिया जाए तो देश में 2,421 कूड़ाघर ऐसे मौजूद हैं, जहां एक हजार टन से भी ज्यादा ठोस कचरा इकट्ठा है।

आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय की मानें तो देश में कूड़े के इन पहाड़ों में तकरीब 15 हजार एकड़ जमीन फंसी हुई है जहां 16 करोड़ टन से ज्यादा कचरा जमा है जिसका निस्तारण एक बड़ी समस्या बनी हुई है। देश के 2,421 कूड़ाघरों में से अभी तक लाख कोशिशों के बावजूद कुल मिलाकर केवल 470 जगहों को ही पूरी तरह साफ  किया जा सका है। जबकि 730 कूड़े की साइटें ऐसी हैं, जिनमें अभी तक निस्तारण के लिए हाथ तक नहीं लगाया गया है। इसका अहम कारण नगर निकायों के पास इस कूड़े के निस्तारण की किसी प्रकार की व्यवस्था ही नहीं है। राज्यों की बात करें तो कचरे के निस्तारण में गुजरात शीर्ष पर है,जहां 202 लाख टन ठोस कचरे में से केवल 10.73 लाखटन कचरे का ही वहां निस्तारण होना बाकी है। जबकि देश की राजधानी दिल्ली में 203 लाख टन ठोस कचरे में से 126.02 लाख टन का निस्तारण अभी बाकी है। आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय के अनुसार 1,250 डंप साइटों में कूड़ा निस्तारण की सुविधा की मंजूरी के साथ वहां कूड़ा निस्तारण का काम पिछले दिनों शुरू कर दिया गया है। अब जरा देश की राजधानी दिल्ली को लें, यहां लाख कोशिशों के बावजूद कूड़े के पहाड़ खत्म होने का नाम नहीं ले रहे। यहां इसकी चार बार तो समय सीमा बदली जा चुकी है।

आसार तो यही लगते हैं कि सरकार नगर निगम के बीच दांवपेच के चलते अभी तय की गई दिसम्बर 2028 की समय सीमा में फिर बदलाव कर सकती है। देखा जाए तो दिल्ली में गाजीपुर, ओखला और भलस्वा ये तीन मुख्य लैण्ड फिल साइटें हैं। यहां ओखला और भलस्वा में कचरा निस्तारण का काम बंद पड़ा है। अब बचा गाजीपुर लैण्डफिल साइट जहां निस्तारण प्रक्रिया इतनी धीमी है जिसके चलते जहां अभी तक 30 लाख मीट्रिक टन कूड़ा निस्तारण हो जाना चाहिए था, वहां कुल 12 लाख मीट्रिक टन कचरे का ही निस्तारण हो सका है। फिर नगर निगम की स्थाई समिति के गठन में विलम्ब के चलते नरेला बवाना में 3000 टन प्रतिदिन और गाजीपुर में 2000 टन प्रतिदिन कूडा निस्तारण क्षमता वाले नए वेस्ट टू ऐनर्जी यानी कूड़े से बिजली बनाने वाले प्लांट की योजना भी स्वीकृति न मिलने के चलते अधर में लटकी हुई है। यही योजना अकेली लटकी नहीं है, तेहखंड लैण्डफिल पर लगे कूड़े से बिजली बनाने के प्लांट की कूड़ा निस्तारण क्षमता में 1000 टन रोजाना बढ़ोतरी की योजना भी अधर में लटक गई है जो अब 2027 में भी पूरी हो जाए तब है।

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यदि मौजूदा हालात पर नजर डालें तो गाजीपुर, ओखला और भलस्वा इन तीनों लैण्डफिल साइटों में मौजूद कुल 159.87 लाख टन शेष कचरे का इसी रफ्तार से निस्तारण की गति रही तो 2028 तक इन कूड़े के पहाड़ों के खत्म होने की उम्मीद की जा सकती है। यह कूड़े के पहाड़ पहले से कुछ कम जरूर हुए हैं और यह भी सच है कि इनका अभी एक-दो साल में हटना भी नामुमकिन है। ऐसी हालत में इनके आसपास रहने-बसने वाले लोग प्रदूषित जहरीला पानी पीने से उल्टी, दस्त, बुखार, किडनी में पथरी सहित पेट के रोगों और जहरीली बदबूदार हवा में सांस लेने के चलते सांस, घबराहट,  आंत्रशोथ, हृदय रोग के शिकार होकर मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे। असलियत में इन लैण्डफिल साइटों के आसपास रहने वाले लोगों का इन जानलेवा बीमारियों की चपेट में आकर अनचाहे मौत के मुंह में चले जाना नियति बन गई है। जब तक इन कूड़े के पहाड़ों का खात्मा नहीं होता, इन कचरे के पहाड़ों के आसपास बसी बस्तियों के बाशिंदों को इन जानलेवा बीमारियों से निजात मिलना मुश्किल है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

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-ज्ञानेन्द्र रावत
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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