हिन्दी तो विविधता में एकता की भाषा है!

हिन्दी तो विविधता में एकता की भाषा है!

भारत का भाषा परिवार हम से ये उम्मीद करता है कि कोई एक भाषा किसी दूसरी भाषा पर थोपी नहीं जानी चाहिए। क्योंकि हिन्दी भाषा की संरचनाएं प्रांतीय भाषाओं और बोलियों से ही सृजित और समृद्ध हुई है।

इस बार भी 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाएगा और हिन्दी भाषी राज्यों में परम्परा के अनुसार सरकारी खर्च पर सरकारी संस्थानों में खूब तालियां और थालियां बजेगी और बधाइयां भी बंटेगी। मुझे इस बात की खुशी भी है कि साल में एक दिन हिन्दी भाषा के प्रकाश स्तंभ रचनाकारों के चित्र प्रकाशित होते हैं। लेकिन हिन्दी भाषी क्षेत्रों का ये पुराना दर्द भी छलकता है कि हिन्दी भाषा को आजादी के 76 साल बाद भी हम हिन्दी को एक राष्ट्रभाषा का सम्मान क्यों नहीं दे पा रहे हैं। आप जानते ही हैं कि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने केवल राजभाषा का दर्जा दे रखा है और तब से हिन्दी भाषा, भारत की राष्ट्रभाषा नहीं मानी जा रही है।

इस दर्द को समझने के लिए मैं खुद हिन्दी भाषा का लेखक होने के नाते ये कहना चाहता हूं कि पहले हिन्दी प्रदेशों में, अहिन्दी प्रदेशों की भारतीय भाषाओं के प्रति आदर और अनुराग की भावना भी दिखाई-सुनाई पड़नी चाहिए। भारत का भाषा परिवार हम से ये उम्मीद करता है कि कोई एक भाषा किसी दूसरी भाषा पर थोपी नहीं जानी चाहिए। क्योंकि हिन्दी भाषा की संरचनाएं प्रांतीय भाषाओं और बोलियों से ही सृजित और समृद्ध हुई है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा का ये वाद-विवाद और संवाद ही आज भाषाई वर्चस्व की राजनीति का रूप ले चुका है।

दूसरे रूप में हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान की राजनीति ने भी इस हिन्दी भाषा को राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अस्मिता से जोड़ दिया है और ये माना जाने लगा है कि जब हिन्दी प्रदेशों (उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हिमाचल, हरियाणा) से ही केंद्र सरकार का भविष्य तय होता है तो फिर भाषाओं का भविष्य भी बहुमत के शासन द्वारा ही तय किया जाएगा। भारत के अधिकतर प्रधानमंत्री इन हिन्दी प्रदेशों की देन हैं और हिन्दी भाषा की सृजन परम्परा इन्हीं हिन्दी प्रदेशों से आती है। यानी कि हिन्दी भाषा को शुरू से ही एक वर्चस्व की भाषा बनाया गया है, जबकि संस्कृत, तमिल तेलगू जैसी अनेक भाषाएं शास्त्रीय भाषा की तरह बहुत समृद्ध हैं। 

इस भाषाई सत्ता व्यवस्था की राजनीति ने बंगला, असमिया, मलयालम, कन्नड़ और गुजराती, राजस्थानी, बुंदेलखण्डी, भोजपुरी जैसे अनेक समृद्ध भाषाओं को वर्चस्व की हिन्दी मानसिकता ने हाशिए से बाहर धकेल दिया है। मेरा इस पृष्ठभूमि में विनम्र सुझाव है कि हिन्दी भाषा-भाषी हिन्दी को अधिक विवाद रहित बनाने के लिए पहले अहिंदी भाषा-भाषियों के साथ सृजन संवाद और सांस्कृतिक सौहार्द बढ़ाएं और अनुवाद के पुल अधिक बढ़ाएं। उर्दू, अंग्रेजी के साथ हिन्दी का तालमेल लगातार अनुवाद से ही बढ़ रहा है। मेरा ये भी अनुरोध है कि हिन्दी जगत को इस बात का गर्व होना चाहिए कि आज हिन्दी यत्र-तत्र-सर्वत्र है और बाजार और सरकार के साथ टेक्नोलॉजी और शिक्षा के माध्यम के रूप में भी प्राय: सर्वमान्य है। प्रचार के सभी माध्यम, फिल्म उद्योग, प्रसारण तंत्र-हिन्दी को घर-घर ले जा रहे हैं। ऐसा है कि हिन्दी तो खुद एक बहता हुआ पानी है जो खुद अपना रास्ता बना रहा है। आज लाल किला भी हिंदी भाषणों से ही जनता के दिल और दिमाग पर राज कर रहा है और अंग्रेजी से अधिक विश्व मंचों पर कामयाब है।

ऐसे में हिन्दी आज बाजार, व्यवहार और बहुमत की राजनीति का सफलतम उदाहरण है। शिक्षा की नई नीति में हिन्दी, अंग्रेजी और तीसरी कोई प्रांतीय भाषा का त्रिभाषा फार्मूला भी यही संवाद और समन्वय बनाता है। अत: हिन्दी भाषा-भाषियों को उदारता और भाषाई-पारिवारिकता की समझ के साथ, सबका साथ-सबका विश्वास और सबका विकास की गैर बराबरी से मुक्त बात करनी चाहिए। क्योंकि हिन्दी प्रथम है किंतु सभी की पंक्ति में समान है। केवल हिन्दी का आग्रह और दुराग्रह एक तरह की संकीर्णता है। अत: हिन्दी को विविधता में एकता का आधार बनाए हैं। हिन्दी के लिए एक दिन का सरकारी कर्मकांड अब बंद होना चाहिए। क्योंकि ये अब जनता के धन का दुरुपयोग है। उचित ये है कि राजभाषा के नाम पर चल रहे सभी अखाड़े अब अहिन्दी भाषी राज्यों में सक्रिय बनाने चाहिए। ताकि प्रांतीय भाषाओं से हमारा भाईचारा बढ़े और सांस्कृतिक आदान.प्रदान विकसित हो। दूसरों को सम्मान देकर ही आप उनसे सम्मान ले सकते हैं। क्योंकि उत्तर की संकीर्ण राजनीति भी बढ़ती है। हिन्दी भाषी लोगों को अन्य भारतीय भाषाओं को पढ़ना-लिखना और बोलना भी चाहिए ताकि हिन्दी भारत में भाषाई एकता का चंदन पानी बन सकें। इसलिए अपना दर्द बताएं तो दूसरों का दर्द भी समझें।

-वेदव्यास
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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