आजादी से पहले नौ दिन चलती थी होली की हुड़दंग

हाड़ौती के लोक गीतों के साथ कोटा में तेरस पर निकलता था न्हाण का जुलूस

आजादी से पहले नौ दिन चलती थी होली की हुड़दंग

हाथियों की पोल के चबूतरे पर जेठियों के पहलवानों की होती थी कुश्ती।

कोटा। कोटा रियासत में होली का रंग में जो मिठास होती थी वो और कहीं देखने को नहीं मिलती है। सात दशक पहले तक कोटा में नौ दिवसीय होली का पर्व चलता था। हर दिन अलग अलग कार्यक्रम होते थे। आज होली एक दिन में ही सिमट कर रह गई है। देश की आजादी से पहले तक कोटा में होलिका दहन से होली पर्व शुरुआत होती थी और पूरे 9 दिन तक होली की धमाल रहता था। हर दिन महाराव व जनता अलग-अलग रंग, परम्परा से साथ होली पर्व मनाते थे। समय के साथ सब कुछ बदल गया है। अब होली में आत्मयता कम और औपचारिकता ज्यादा हो गई है। अब तो आलाम यह है कि लोग सिर्फ धुलंडी के दिन ही रंगों से सरोबार नजर आते हैं। एक-दूसरे के रंग, गुलाल लगाते थे। इसके बाद अगर कोई रंग गुलाल लगा हुआ नजर आता है तो अजीब सा लगता है। लेकिन, कोटा रियासत के इतिहास को टटोले तो एक सदी पूर्व, देश की आजादी से पहले तक होलिका दहन से होली पर्व शुरुआत होती थी और पूरे 9 दिन तक होली की धमाल रहता था। 

नौ दिन की होली हर दिन होती थी थीम
साहित्यकार अंबिका दत्त ने बताया कि नौ दिवसीय होली की हर दिन की थीम होती थी। किसी दिन धूल की होली, तो किसी दिन गुलाल, रंग की होली, किसी दिन प्रजा की होली तो किसी दिन राणी, महाराणी, बड़ारण की होली होती थी। रियासतकाल के होली उत्सव को लोग साल भर याद रखते थे। होली के इस उत्सव के कारण ही महाराव उम्मेद सिंह की ख्याति उस जमाने में अन्य रियासतों तक फैली थी। 
पहला दिन: फागुन सुदी पूर्णिमा से होली पर्व शुरू होता था। जो नौ दिन तक चलता था। शाम 4 बजे उम्मेद भवन से जनानी सवारी शुरू होती थी। जिसमें राणीजी, महाराज कुमार बग्गी में सवार होकर रवाना होते थे। रास्ता में लाल कोठी से महाराणी जाड़ेची जी सवारी में शामिल होती थी। शाम 7 बजे गढ़ के चौक में होलिका दहन होता था। इस दौरान विधुरों द्वारा मनोरंजन के लिए हाड़ौती के लोकगीत गाए जाते थे। 
दूसरा दिन: धुलंडी के दिन  होलिका दहन की राख से होली खेलते थे। होलिका दहन के बाद दूसरे दिन लोग राख से होली खेलते थे। जो होलिका दहन स्थल से राख लाते थे। अधिकांश लोग धूल से होली खेलते थे। इससे ही धुलंडी नाम पड़ा है। उस जमाने में गांवों में कीचड़, धूल, गोबर आदि से भी धुलंडी खेली जाती थी। धुलंडी के दिन रंग का कहीं भी उपयोग नहीं होता था।
तीसरे दिन : होली की राख से होली खेलने के बाद तीसरे दिन महाराव किराना भंडार में दवात पूजन करते थे। जिसमें बड़ी संख्या में प्रजा भी शामिल होती थी। 
चौथा दिन: चौथे दिन नावड़ा की होली खेली जाती थी। 
पांचवा दिन: पांचवे दिन हाथियों पर होली खेली जाती थी। जिसमें महाराव हाथियों पर सवार होकर लोगों से होली खेलने निकलते थे। जिसमें प्राकृतिक रंगों को उपयोग होता था।
छठा दिन: छठे दिन पड़त रहती थी। 
सातवां दिन : सातवें दिन न्हाण खेला जाता था। जिसमें सुबह शाम दरीखाना होता था। सुबह के दरीखाने में महाराव नई पोशाक पहन कर सिंहासन पर बैठते थे। नर्तकियां नृत्य करती थी। महाराव दरीखाने में गुलाल, अबीर का गोटा फेंकते थे। 
आठवां दिन: आठवें दिन को पड़त रहती थी।
नवें दिन: नवें दिन दरीखाने में कचहरी व फौज के हलकारों के बीच अखाड़ा होता था। इसके साथ ही होली पर्व का समापन होता था।

हर जातियां के समूह बनाकर  होली खेलते
बुर्जुग प्रेम बाई ने बताया कि धुलड़ी पर हर समाज के लोग टोलियां बनाकर चंग की थाप पर घर जाकर लोगों के रंग लगाते और गले मिलते पहले होली में उत्साह उमंग और आनंद हुआ करता था। अब तो सिर्फ दिखावा बन गया है। युवाओं की हुड़दंग और धमाल के अलावा कुछ नहीं है। पहले होली में लोकाचार हुआ करता था। लोग अंतरंगता थी अब प्रदर्शन अधिक है। होली तो लोग जन जन का त्यौहार है यह लोगों की रग रग में बसा है। समय के साथ कुछ बदलाव हुए है।

पहलवानों के करतब होते थे हैरत अंगेज
बुर्जुग मदनलाल बताते है कि वह जब छोटे थे तो उनके दादा उनको रियासत काल की होली के किस्से सुनाया करते थे। वो अकसर कहते होली तो हमारे जमाने में खिला करते थे। होली के पांचवा दिन बहुत खास होता था। इस दिन गढ़ पैलेस में हाथियों की पोल के चबूतरे पर शाम का दरी खाना लगता था, जिसमें महाराव के सामने अखाड़े में जेठियों के पहलवानों की कुश्ती होती थी। पहलवानों द्वारा करतब दिखाए जाते थे। वो हैरत अंगेज होते थे। नगाडखाना के दरवाजे के बाहर झंडा गाड़ा जाता था। जिसे उखाडऩे के लिए  युवाओं द्वारा प्रयास किया जाता था। इसी वर्ग की महिलाएं कोड़े मारकर युवकों भगाने का प्रयास करती थी। युवक कोड़े खाकर भी झंडे को उखाड़ लाते थे। जिन्हें महाराव द्वारा गुड़ की भेली, नकदी टका, लाल-सफेद कपड़े के थान का पुरस्कार दिया जाता था।

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पहले होली जीवंत होती थी अब औपचारिकता होती है
बुजुर्ग रामकन्या ने बताया कि पहले होली जीवंत हुआ करती थी।  अब होली जलाने का प्रसंग कोई उल्हास दायक नहीं रहा है। हमारे समय में  होली जलाने का अनुष्ठान हुआ करता था। पहले खूब घन जंगल हुआ करते थे। े खुली जमीन हुआ करती थी। रात में टोलियां होली के लिए लकड़ियां चुराने निकलते थे किसी टूटी खाट तो किसी का पुराना छप्पर, कंडे ले आते लोग पीछे भागते होली का हास्य और विनोद और होली की गालियां दी जाती थी। जिसका लोग बुरा नहीं मानते थे और आनंद लेते थे। अब होली जलाने के लिए ना तो स्थान बचे न ही होली खेलने के मैदान। 

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सातवें दिन न्हाण खेला जाता था
बुर्जुग कन्हैयालाल ने बताया कि  कोटा में होली के सातवें दिन न्हाण खेला जाता था। जिसमें सुबह शाम दरीखाना होता था। सुबह के दरीखाने में महाराव नई पोशाक पहन कर सिंहासन पर बैठते थे। नर्तकियां नृत्य करती थी। महाराव दरीखाने में गुलाल, अबीर का गोटा फेंकते थे। इसके बाद सभी लोग आपस में रंग, गुलाल लगाकर होली खेलते थे। दरीखाने की होली के बाद महाराव राजमहल में पहुंच कर राणीजी, महाराणी जी, बड़ारण के साथ पचरंगी गुलाल से होली खेलते थे।

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