प्रदेश का सियासी संकट: नंबर गेम मुख्यमंत्री गहलोत के पास, पायलट को नहीं मिल रही तरजीह
प्रदेश में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच पनपा सियासी संकट फिलहाल थमने का नाम नहीं ले रहा। इस बीच विधायकों का नंबर गेम गहलोत के पास होने की वजह से पार्टी आलाकमान भी पायलट गुट को ज्यादा तरजीह नहीं दे रहा है। दोनों गुटों के समर्थक विधायक भी खुलकर सामने आ गए हैं और अपने-अपने नेता के पक्ष में बयानबाजी कर रहे हैं।
जयपुर। प्रदेश में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच पनपा सियासी संकट फिलहाल थमने का नाम नहीं ले रहा। इस बीच विधायकों का नंबर गेम गहलोत के पास होने की वजह से पार्टी आलाकमान भी पायलट गुट को ज्यादा तरजीह नहीं दे रहा है। दोनों गुटों के समर्थक विधायक भी खुलकर सामने आ गए हैं और अपने-अपने नेता के पक्ष में बयानबाजी कर रहे हैं। पायलट 6 दिन दिल्ली में रहने के बाद बुधवार को जयपुर लौट आए हैं, लेकिन न तो वह सोनिया गांधी से मिल सके और ना ही राहुल से मुलाकात हो सकी। पायलट को प्रियंका गांधी से बड़ी उम्मीदें हैं, लेकिन उनसे भी मुलाकात नहीं हो पाई।
धीरे-धीरे कमजोर हो रहा पायलट खेमा
इस सियासी संकट के बीच पायलट खेमा धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है, चूंकि उनके खेमे में शामिल दो कद्दावर नेता विश्वेन्द्र सिंह और भंवरलाल शर्मा भी अब गहलोत को अपना नेता करार दे रहे हैं। पिछले साल जुलाई महीने में जब सचिन पायलट ने गहलोत से बगावत की थी, उस समय उनके साथ 18 विधायक थे, जिनमें तीन निर्दलीय थे। उस समय कांग्रेस के पास कुल 106 विधायक थे और 13 निर्दलीयों का समर्थन था। उस समय बसपा के सभी 6 विधायकों ने गहलोत का समर्थन करते हुए कांग्रेस की सदस्यता ले ली थी। राजनीतिक विश्लेषज्ञों की मानें, तो पायलट के पास शुरू से ही नंबर गेम काफी कम था। अब 11 महीने बाद भी पार्टी आलाकमान पायलट गुट को तरजीह नहीं दे रहा है। पायलट के जयपुर लौटने के बाद उनके समर्थक कुछ युवा विधायक काफी आक्रोशित है और वे बयानबाजी कर रहे हैं। इससे दोनों गुटों के बीच विवाद बढ़ने की आशंका और बढ़ गई है। इस मामले में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पूरी तरह अडिग हैं और अनुशासनहीनता को माफ करने के कतई पक्ष में नहीं है।
आलाकमान ने भी पायलट से बना ली दूरियां
विशेषज्ञों का तर्क है कि पिछले साल बगावत कर पायलट गुट के लोग मानेसर के बजाय दिल्ली पहुंचते तो शायद अब तक दोनों के बीच सुलह भी हो जाती, लेकिन गहलोत सरकार को गिराने का कथित षड्यंत्र उजागर होने के बाद सबकुछ गड़बड़ हो गया। कथित षड्यंत्र के चलते कांग्रेस आलाकमान ने भी पायलट से दूरिया बना ली। गहलोत भी कांग्रेस पार्टी से बगावत करने वाले विधायकों को पूरी तरह सबक सिखाने के मूड में हैं। इसमें ना तो मंत्रिमंडल में जगह देना है और ना ही राजनीतिक नियुक्तियों में तरजीह देना। पायलट समर्थकों को पार्टी में भी अलग-थलग रखना, गहलोत समर्थकों की रणनीति का हिस्सा है। पायलट समर्थक विधायकों की कांग्रेस पार्टी में रहना भी 11 महीनों में एक मजबूरी बन गई है।
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