भारत की भाषिक सांस्कृतिकी और हिन्दी की तासीर
भाषा किसी भी राष्ट्र और संस्कृति की धुरी कहलाती है तथा अस्तित्व व अस्मिता का महत्वपूर्ण अभिधान भी भाषा ही है।
भाषा किसी भी राष्ट्र और संस्कृति की धुरी कहलाती है तथा अस्तित्व व अस्मिता का महत्वपूर्ण अभिधान भी भाषा ही है। यही उपादान एक व्यक्ति का दूसरे से संपर्क साधने की भूमिका का निर्वहन करता है। साथ ही मनुष्य के चिंतन, विचार-विनिमय एवं मनोगत भावों के प्रकटीकरण में भी सहायक होता है।
उसके बिना न तो अभिव्यक्ति संभव है, ना ही वैचारिक विमर्श की अन्य कोई प्रक्रिया। इन सभी परिभाषाओं का निहितार्थ यह है कि भाषा ही एकमात्र राष्ट्रीय धरोहर है। किसी भी भाषा के माध्यम से उस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का अंदाजा सहज ही हो जाता है। इसी सांस्कृतिक मानदंड के साथ यदि दुनिया की महत्वपूर्ण संप्रेषणशील भाषाओं पर दृष्टि डाली जाए, तो हिंदी का उनमें अग्रणी स्थान है। दरअसल सभी विश्व भाषाएं, हिन्दी से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं।
शायद इसीलिए दिनकर ने कहा है कि भारतीय संस्कृति समुद्र की तरह है, जिसमें अनेक धाराएं आकर विलीन होती रही हैं। इन अनेक धाराओं में एकत्व का निर्वाह करती हुई हमारी भाषा संपूर्ण देश को एकत्व में बांधने का महत्वपूर्ण काम कर रही है। हिंदी भाषा का उद्भव और विकास लगभग ग्यारह सौ वर्षों की यात्रा को समेटे हुए है। किंतु आदिकाल की हिंदी भाषा, मध्यकाल की हिंदी भाषा और वर्तमान हिंदी भाषा के स्वरूप में मूलभूत अंतर है। जब हम हिंदी अनुप्रयोग की चर्चा करते हैं तो वहां अवधी, ब्रज, राजस्थानी का जिक्र नहीं करते, वहां खड़ी बोली हिंदी के मानक रूप की ही चर्चा करते हैं। इसका कारण यह है कि साहित्य की भाषा या बोलचाल की भाषा तकनीक की भाषा नहीं हो सकती। अनुप्रयोग की भाषा अवधारणात्मक शब्दों और पारिभाषिक शब्दों पर निर्भर करती है। वे शब्द एकार्थी, एकरूपी होते हैं। इन शब्दों में स्रोत शब्दों की अवधारणा को विधिवत उपस्थित किया जाता है। इन शब्दों के निर्माण में अपने कुछ नियम होते हैं। ये शब्द अधिकांशत: कृत्रिम या बनाए गए, गढ़े गए होते हैं। इसलिए कठिन प्रतीत होते हैं, कठिन होते नहीं।
वैश्विक समाज की भाषा की क्या विशेषताएं हैं, यह विकास के किन रास्तों से गुजर कर आज के मुकाम तक पहुंची है, इस पर बहुत चिंतन हुआ है, निरंतर हो भी रहा है। इस चिंतन में जो सर्वमान्य तथ्य है, वह यह है कि भाषा का स्वरूप सदा-सर्वदा परिवर्तित-परिवर्द्धित होता रहा है। पिछले कुछ दशकों में भाषा का स्वरूप तेजी से बदला है तथा आगामी दशकों में अनेक बार और आंतरिक प्रभावों से इसका स्वरूप बदलने की पुरजोर संभावना है। जनमानस का भाषा के सरलीकरण की ओर झुकाव बढ़ रहा है। आजकल हर भाषा को जनभाषा बनाने की कवायद को लेकर भाषा के मूल रूप से खिलवाड़ किया जा रहा है। ये बदलाव भाषा के लचीलेपन के आग्रह का कारण बताकर अनवरत किए जा रहे हैं। वर्तमान में अगर कोई शुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी प्रयोग में लेता है तो उसे क्लिष्ट कहकर, उसके भाषा कौशल का उपहास उड़ाया जाता है। बदलाव के लिए प्रयुक्त सरलीकरण के इन विकल्पों के सुझावों के स्थान पर भाषा को सुसंस्कृत भी तो किया जा सकता है फिर हमारा ध्यान उसके विकृत रूप को अपनाने पर ही अधिक क्यों है। क्या सरलीकरण की ओर उन्मुख होकर ही भाषा का संवर्धन, संरक्षण किया जा सकता है।
संपर्क भाषा के रूप में जब हिंदी शिक्षण, विशेषकर एशिया के देशों के संबंध में बात करते हैं तो वहां व्यापारिक भाषा के रूप में हिंदी का चलन काफी पहले से हो रहा है। वहां पर व्याकरण, बोलचाल की हिंदी का शिक्षण, द्विभाषिक कोश के अध्ययन तथा अनुवाद के माध्यम से हिंदी शिक्षण को प्रभावी बनाया जा सकता है। व्यावहारिक हिन्दी व्याकरण का प्रयोग, पत्र-पत्रिकाओं तथा सांस्कृतिक महत्व के अनेक कार्यक्रम, रचनात्मक गतिविधियों का आयोजन तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न भाषाई समूहों का छात्र स्तर पर आदान-प्रदान भाषाई शिक्षण के लिए हितकर होगा। यह सुखद है कि विश्व की प्रमुख संप्रेषणीय भाषा के रूप में हिंदी उभर रही है। अत: हिंदी के शिक्षण को गति देने के लिए बोलचाल की हिंदी एवं संस्कृति और भाषा के गठबंधन को पाठ्यक्रम में केन्द्रीय विषय के रूप में रखना होगा। भाषा सहज, सरल और तरल है और यह हिन्दी के गुणधर्म के सबसे निकट है। हिन्दी मन के पर्दे पर आत्मीय दस्तक देती है, पर यह आत्मीयता उसे बरतने के ढब में है, और यह ढब और सलीका हिन्दी को उसकी बोलियां प्रदान करती हैं।
-डॉ. विमलेश शर्मा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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