प्राकृतिक संसाधनों के अधिक दोहन से बचें
पश्चिम एशिया में जहां पानी की बर्बादी सबसे ज्यादा होती है
एक बेहतर जिंदगी में किस चीज की जरूरत कितनी, किस प्रकार और कब होती है और इनका इस्तेमाल किस तरह से करना चाहिए, कितना करना चाहिए इस पर गौर करने की जरूरत है।
दुनिया में लगातार विकास हो रहा है। यह विकास जहां कई तरह की समस्याओं और संकटों को आमंत्रित कर रहा है वहीं पर समस्याओं को हल करने में भी अहम रोल अदा कर रहा है। दुनिया में विकास की वजह से समस्याएं और संकटों का दौर लगातार चल रहा है। इस पर गौर करने की जरूरत है। वर्ल्ड वाइल्ड फंड फॉर नेचर की रिपोर्ट के मुताबिक संसाधनों की मांग नेचर की क्षमता से बहुत ज्यादा है। दुनिया में जब से मल्टीनेशनल कंपनियों और बाजारवादी शक्तियों का उदय हुआ, उसके बाद से ही नेचुरल रिसोर्सेस के अधिक इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ी है।
नेचुरल रिसोर्स के अधिक दोहन की वजह से नए तरह के संकट दिखाई पड़ने लगे हैं। साथ ही पर्यावरण का विश्वव्यापी संकट सामने आने लगा है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन और ऋतुचक्र में आमूलचूल बदलाव का होना यह बताता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ इंसान के लिए भारी पड़ सकती है। ग्लेशियरों के पिघलने, सुनामी, बर्फीले तूफान, अकाल और बिना मौसम बरसात की समस्या इसके साफ संकेत हैं। पिछले तीन दशकों से वैज्ञानिक इस बात को लेकर चिंतित रहे हैं कि नेचर रिसोर्सेज के खत्म होने के बाद इनके विकल्प के रूप में किन चीजों का इस्तेमाल किया जाएगा और प्रकृति में हो रहे बदलावों का असर क्या रोक पाना मुमकिन हो पाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ प्राकृतिक संसाधनों के बढ़ते अंधाधुंध दोहन की वजह से खासा चिंतित है। कोयला ज्यादा-से-ज्यादा दो सौ साल, पेटोलियम पदार्थ पचास साल, पानी पचास साल और खनिज पदार्थों का भंडार पचास साल से ज्यादा चलने वाले नहीं हैं।
पानी की विकट समस्या के कारण भविष्य में जल-युद्ध छिड़ सकता है। खास कर पश्चिम एशिया में जहां पानी की बर्बादी सबसे ज्यादा होती है। प्राकृतिक सम्पन्नता के नजरिए से देखा जाए तो भारत सबसे ज्यादा मालामाल है। नेचुरल संसाधनों का दोहन कई तरह की समस्याएं और संकट की तरफ इशारा करते हैं। इसके लिए जागरूकता फैलाने की कोशिशें भी की जाती रही हैं, बावजूद इसके लोगों में जागरूकता नहीं आई है। पानी की इस तरह की बर्बादी से देश के हजारों गांव और शहरों में जल संकट पैदा हो गया है, कई इलाकों में तो साल के बारह महीने सूखे जैसी स्थिति बनी रहती है। पानी के अलावा खाद्यान्न की कमी के कारण खाद्यान्न का आयात किया जाता है। लेकिन खाद्यान्न की समस्या का कारण पैदावार की कमी नहीं, बल्कि प्रबंधन की खामी की वजह से विचौलियों द्वारा पैदा किया हुआ संकट है। देश की हजारों एकड़ जमीन बंजर पड़ी हुई है। इसको सुधार कर तिलहन और दलहन की समस्या से निजात मिल सकती है। केंद्र और राज्य सरकारें तिलहन और दलहन फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए कई योजनाएं शुरू कर चुकी हैं, लेकिन उन योजनाओं के बाद भी यह समस्या बनी हुई है। बिहार, असम और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में प्रबंधन की विफलता की वजह से हर साल बाढ़ से जन-धन का नुकसान हो जाता है। बाढ़ से खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह कर नदियों के जरिए समुंदर में पहुंच जाती है। इससे पैदावार पर भी जबरदस्त असर पड़ता है। बाढ़ की वजह से हर साल मेड़बंदी करनी एक बहुत बड़ी समस्या बन जाती है। पूर्वोत्तर से पलायन की वजह बाढ़ और सूखा भी है।
बिहार में जल प्रबंधन की बहुत जरूरत है। यदि यहां जल प्रबंधन हो जाए तो पीने के साफ पानी की कमी दूर हो जाएगी, वहीं खेती और रोजमर्रा की तमाम जरूरतें पूरी हो सकेंगी। ग्लोबलाइजेशन के बाद उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर केन्द्र और राज्य सरकारों ने मल्टीनेशनल कंपनियों को नेचुरल रिसोर्स के दोहन की खुली छूट दी। उसका नतीजा है, देश का बहुत सारा प्राकृतिक संसाधन खत्म हो गया या खत्म होने के कगार पर है। इसके अलावा कीमती पत्थर, बजरी और तमाम रासायनिक वस्तुओं के दोहन से पर्यावरण सहित कई समस्याएं पैदा हो गई हैं।
नेचुरल संसाधनों के संतुलित इस्तेमाल को लेकर आम आदमी में संवेदना पैदा करना कारगर हो सकता है। इसमें केंद्र, राज्य सरकारों, स्वयंसेवी संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। जब तक हम बेहतर तरीके से समझेंगे नहीं, समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है। जल-स्रोत, बगीचे, वन, झीलें और अन्य नेचुरल संसाधन लगातार खत्म किए जा रहे हैं।
हमें पश्चिमी जीवन-शैली यूज एंड थ्रो के अंधानुकरण से बचना होगा और भारतीय अपरिग्रह वाली संस्कृति उचित उपयोग, सबका संरक्षण और नेचर इज माई मदर की विचार धारा को अपनाने की जरूरत है। सारी समस्या प्रबंधन की जानकारी न होने के कारण है। एक बेहतर जिंदगी में किस चीज की जरूरत कितनी, किस प्रकार और कब होती है और इनका इस्तेमाल किस तरह से करना चाहिए, कितना करना चाहिए इस पर गौर करने की जरूरत है।
-अखिलेश आर्येन्दु
यह लेखक के अपने विचार हैं।
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