सतरंगी सियासत

सतरंगी सियासत

आतिशी मर्लोना राजधानी दिल्ली की सीएम हो गईं। लेकिन आखिर आतिशी ही क्यों? कोई और नेता क्यों नहीं? वैसे अतिशी कोई जन नेता नहीं। पार्टी कैडर में भी उनका प्रभाव नहीं। संगठन में भी कभी उतनी सक्रिय नहीं रहीं।

यहां पहुंच गए!
आतिशी मर्लोना राजधानी दिल्ली की सीएम हो गईं। लेकिन आखिर आतिशी ही क्यों? कोई और नेता क्यों नहीं? वैसे अतिशी कोई जन नेता नहीं। पार्टी कैडर में भी उनका प्रभाव नहीं। संगठन में भी कभी उतनी सक्रिय नहीं रहीं। वह आंदोलन से निकली हुई नेता भी नहीं। बस कभी डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया की सलाहकार हुआ करती थीं। लेकिन राजनीति में कम समय समय में लंबी छलांग लगाने में सफल रहीं। अब तो उनके बॉस रहे सिसोदिया से भी वह डेकोरम में सीनियर हो गईं। हां, आजकल आम आदमी पार्टी में वह नेता भी बहुत कम बचे। जो अन्ना आंदोलन के समय केजरीवाल के इंडिया अगेन्स्ट करप्शन में जुडे थे। बल्कि समय के साथ एक-एक करके किनारे होते चले गए। या ठिकाने लगा दिया गया। सो, अब सरकार में भी वही हाल। कहां से चले थे और कहां पहुंच गए?

मतदाता का संदेश
तो यह बिल्कुल साफ। जम्मू-कश्मीर की अवाम क्या चाहती। भारी मतदान करके कश्मीर की जनता ने बता दिया। उसे न अलगाववाद पंसद और न ही आतंक। उसे अपनी भावी पीढ़ी के लिए शांति, शिक्षा एवं कानून व्यवस्था चाहिए। दुनिया के कई देशों के प्रतिनिधि भी चुनावी प्रक्रिया को देखने पहुंचे। किसी ने भी गड़बड़ी की आशंका तक नहीं जताई। अब वह नरैटिव भी हवा होे गया। जो दशकों से बनाया जा रहा था। यानी राज्य में लोकतंत्र की बहार। अब सवाल उनका। जो इतने दशकों से कश्मीर के नाम पर दुकानें चला रहे थे। अब उनकी जगह कहां होगी? यह सब चुनावी परिणाम तय करेंगे। राज्य में नया नेतृत्व सामने आने की संभावना। आम जनता जड़ता एवं यथास्थितिवाद से बाहर आना चाहती। वैसे भी सोशल मीडिया के जमाने में भारत का बुरा चाहने वाले कब तक झूठ का नेरैटिव चलाएंगे?

कांग्रेस सरकारें...
कांग्रेस की इस समय तीन राज्यों में सरकारें। कर्नाटक, तेलंगाना एवं हिमाचल प्रदेश इसमें शामिल। लेकिन इन दिनों तीनों ही सरकारों पर संकट के बादल। कर्नाटक के सीएम सिद्धसमैया एक जमीन घोटाले में फंसे हुए। मामला कोर्ट में। सो, इस्तीफा देने की नौबत संभव। वहीं, तेलंगाना के सीएम रेवन्त रेड्डी पड़ोसी राज्य में हुए तिरूपति मंदिर लड्डू विवाद में कुछ बोल नहीं पा रहे। क्योंकि तेलंगाना कभी आंध्रप्रदेश का ही हिस्सा था। सो, यहां उस विवाद का असर न हो। यह संभव नहीं। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में स्ट्रीट वेंडर पॉलिसी और दुकानों पर नेम प्लेट लगाने वाला नियम चर्चा का विषय बना हुआ। जो यूपी के सीएम योगी की तर्ज पर। इससे कांग्रेस आलाकमान असहज। वहीं, प्रदेश के चर्चित मंत्री विक्रमादित्य सिंह लगातार पार्टी को परेशानी में डाल रहे। क्या कांग्रेस इतनी बुरी स्थिति के बावजूद संभल नहीं रही?

बदलेगा माहौल!
तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने अपने बेटे उदयनिधि मारन को डिप्टी सीएम बना ही दिया। हालांकि गठबंधन के कुछ सहयोगियों के विरोध के चलते इसमें थोड़ी देरी हुई। लेकिन पीढ़गत बदलाव हो गया। लेकिन ऐसी चर्चा। करूणानिधि का परिवार इससे खुश नहीं। खासकर सांसद कणिमोझी असहज। उधर, एआईएडीएमके के एके पलानीस्वामी भाजपा से दूरी बनाए हुए। तो पूर्व सीएम ओपीएस की भाजपा से नजदीकियां। शशिकला राजनीतिक बियांबान में। तो मुख्य प्रतिद्वंदी डीएमके एवं एआईएडीएमके ही। तमिलनाडु की राजनीति में इन दोनों दलों के पास करीब 50 फीसदी वोट बैंक। हां, केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा 2026 में किसके साथ गठजोड़ करेगी। यह देखने वाली बात। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में उसने वोट पाने के मामले में दहाई का आंकड़ा पार कर लिया। और यदि इसमें बढ़ोतरी हुई। तो भाजपा महत्वपूर्ण किरदार होगी। मतलब, तमिलनाडु में राजनीतिक माहौल बदलाव की ओर!

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हिसाब बराबर!
मानो जैसे अजय माकन ने भूपिन्दर सिंह हुड्डा से पुराना हिसाब बराबर कर लिया हो। साथ में राहुल गांधी के सामने अपने नंबर भी बढ़वा लिए। असल में, हरियाणा के पीसीसी चीफ रहे अशोक तंवर की घर वापसी माकन की ही रणनीति। किसी को कानो कान भनक तक नहीं लगने दी। तंवर वैसे माकन के रिश्तेदार भी। लेकिन राजनीति में रिश्तेदारी अपनी जगह और राजनीति की अपनी चाल। फिर तंवर का हरियाणा की कांग्रेस राजनीति में हुड्डा से 36 का आंकड़ा रहा। इसीलिए उन्हें पार्टी छोड़नी पड़ी थी। लेकिन माकन ने मौके पर चौका मार दिया। याद रहे, माकन कभी केवल एक वोट से हरियाणा से राज्यसभा नहीं पहुंच सके थे। तब सात विधायकों के वोट स्याही के चक्कर में खारिज कर दिए गए। इसमें हुड्डा की भूमिका बताई गई। इसीलिए उस समय का हिसाब अब माकन ने बराबर किया!

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किस करवट?
हरियाणा में तमाम चुनावी सर्वे शुरू से ही माहौल कांग्रेस में पक्ष में बताते रहे। अब तो एग्जिट पोल भी सामने। हालांकि अंतिम परिणाम मंगलवार को आएगा। तब तक जो भी आशार्थी। उनके मन में लड्डू फूटना स्वाभाविक। इसीलिए सीएम पद को लेकर कांग्रेस में अच्छा खासा बखेड़ा चल रहा। इसमें पूर्व सीएम भूपिन्दर सिंह हुड्डा से लेकर सांसद कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला भी शामिल। हालांकि सांसदों को चुनाव नहीं लड़वाया गया। उसके बावजूद दावेदारी ठोंकने में कोई पीछे नहीं। हुड्डा साहब की मानो यह अंतिम पारी। सो, देखना यह होगा कि उंट किस करवट बैठेगा? हां, भाजपा में भी एंटी इंकम्बेंसी का डर शुरू से रहा। आखिर उसके शासन को दस साल हो गए। वैसे, क्षेत्रीय एवं छोटे दल भी अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने के लिए पूरी जोर आजमाइश करते रहे। कितना सफल होंगे। यह परिणाम बताएगा।

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दिल्ली डेस्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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