जहरीली हवा से सांसों का संकट 

दिल्ली में औसत एक्यूआइ 293 पहुंच गया

जहरीली हवा से सांसों का संकट 

एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी एक्यूआइ बहुत खराब की श्रेणी में पहुंच चुका है।

दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में अभी दीपावली आने में कुछ दिन है, उससे पहले ही जहरीली हवा एवं वायु प्रदूषण से उत्पन्न दमघोटू माहौल का संकट जीवन का संकट बनने लगा हैं और जहरीली होती हवा सांसों पर भारी पड़ने लगी है। एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी एक्यूआइ बहुत खराब की श्रेणी में पहुंच चुका है। दिल्ली में औसत एक्यूआइ 293 पहुंच गया है। दिल्ली के अनेक क्षेत्रों में यह अभी से 300 पार जा चुका है। आने वाले दिनों में यह और बढ़ेगा। बढ़ते वायु प्रदूषण से जनता की सांसों पर गहराते संकट के समाधान के लिए सरकार के पास विभिन्न चरणों में लगाए जाने वाले प्रतिबंधों के अलावा कोई योजना नजर नहीं आती।

दिल्ली सरकार जो भी तर्क दे, हकीकत यही है कि लोगों का दम घुटेगा, बच्चों एवं बुजुर्गों के सामने बड़ा संकट खड़ा होगा। लगता है दिल्ली सरकार इससे पार पाने को लेकर गंभीर नहीं है। वह गंभीर होती तो पहले से कोई ठोस योजना बनाती। दिल्ली के वायु प्रदूषण एवं हवा के जहरीले होने में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा जलाई जाने वाली पराली का बड़ा योगदान बताया जाता है। उससे निपटने के प्रयासों के दावे भी राज्य सरकारों द्वारा किए जाते हैं पर वांछित परिणाम नजर नहीं आते। वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए बना आयोग भी जिम्मेदारी के निर्वाह में नाकाम नजर आता है।

प्रश्न है कि पिछले कुछ सालों से लगातार इस महासंकट से जूझ रही दिल्ली को कोई समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती। सरकारें एवं राजनेता एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की बजाय समाधान के लिए तत्पर क्यों नहीं होते? वैसे प्रदूषण कम करने और दिल्ली सहित देश के अन्य महानगरों को रहने लायक बनाने की जिम्मेदारी केवल सरकारों की नहीं है, बल्कि हम सबकी है। लोगों को खुद भी पूरी सतर्कता बरतनी होगी। लोगों को खुली जगह में कूड़ा नहीं फेंकना चाहिए और न ही उसे जलाएं। वाहनों का प्रदूषण लेवल चेक करना चाहिए। कोशिश करें कि हम निजी वाहनों का इस्तेमाल कम से कम करें और सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें। सुप्रीम कोर्ट राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर कठोर टिप्पणियां करने के साथ सरकार को कठोर एवं प्रभावी कदम उठाने के लिए जागरूक करती रही है।

हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने से रोकने में पंजाब सरकार की नाकामी पर सख्त टिप्पणी भी की। पंजाब और दिल्ली, दोनों ही राज्यों में आम आदमी पार्टी की सरकारें हैं, इसलिए यह आप और भाजपा के बीच राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का मुद्दा भी बनता रहता है। ध्यान रहे कि पंजाब और दिल्ली के बीच स्थित राज्य हरियाणा में भाजपा की सरकार है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा सरकार है, जिसके पश्चिमी क्षेत्र के किसानों पर पराली जलाने का आरोप लगता रहता है। आम आदमी की सेहत ही नहीं, जीवन से भी जुड़े इस जानलेवा मुद्दे पर राजनीति नहीं, बल्कि ठोस समाधान की राह निकलनी चाहिए। दीपावली पर आतिशबाजी न हो, इसके लिए व्यापक प्रयत्न किए जाएं। क्योंकि पटाखे जलाने से न केवल बुजुर्गों बल्कि बच्चों के जीवन पर खतरनाक प्रभाव पड़ने और अनेक रोगों के पनपने की संभावनाएं हैं। आम जनता की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाली पटाखे जलाने की भौतिकतावादी मानसिकता को विराम देना जरूरी है।

प्रदूषण मुक्त पर्यावरण की वैश्विक अभिधारणा को मूर्त रूप देने के लिए ईको फ्रेंडली दीपावली मनाने की दिशा में पिछले कुछ सालों में कई पायदान हम ऊपर चढ़े हैं, एक सकारात्मक वातावरण बना। तमाम बंदिशों एवं चेतावनियों के बाद दीपावली की रात आतिशबाजी जमकर होती है। इस कारण पिछले साल अगले दिन वायु प्रदूषण 999 के बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था। यह आम आदमी की सेहत, खासकर बुजुर्गों और बच्चों के लिए कितना खतरनाक साबित हो सकता है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 401 से 500 तक के एक्यूआइ को ही खतरनाक माना जाता है। वायु प्रदूषण से जुड़े आंकडेÞ हमें बार-बार सतर्क  करने के साथ डराते भी हैं। यह डराने वाला ही आंकड़ा है कि भारत में हर साल वायु प्रदूषण से 20 लाख मौतें होती हैं। देश में होने वाली मौतों का यह पांचवां बड़ा कारण है। दिल्ली-एनसीआर के वायु प्रदूषण में पराली और पटाखों की ही तरह वाहनों एवं भवन-निर्माण से जुड़ा प्रदूषण भी खतरनाक होता है।

भू-विज्ञान मंत्रालय के एक रिसर्च के अनुसार वायु निर्माण में 41 प्रतिशत हिस्सेदारी वाहनों की रहती है। दिल्ली परिवहन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पिछले 30 साल में वाहन और उनसे होने वाला प्रदूषण तीन गुणा बढ़ गया है। फिर भी सार्वजनिक यातायात व्यवस्था को बेहतर और विश्वसनीय बनाने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार दिल्ली के प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी लगभग 40 प्रतिशत के आसपास है। सच यह है कि इसके लिए कोई प्रभावी कोशिश हो ही नहीं रही है।  
-ललित गर्ग 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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