ग्लेशियरों के पिघलने से बिगड़ा जलचक्र

संकट के परिणाम अभूतपूर्व और विनाशकारी होंगे

ग्लेशियरों के पिघलने से बिगड़ा जलचक्र

दुनिया में ग्लेशियरों का पिघलना समूचे प्राणी जगत के लिए संकट का सबब बन गया है।

दुनिया में ग्लेशियरों का पिघलना समूचे प्राणी जगत के लिए संकट का सबब बन गया है। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूनेस्को की विश्व जल विकास रिपोर्ट 2025 में दुनिया में ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यदि ग्लेशियरों के पिघलने की मौजूदा दर इसी तरह जारी रही, तो इस संकट के परिणाम अभूतपूर्व और विनाशकारी होंगे। यदि समय रहते इस पर अंकुश नहीं लगा तो दुनिया की कुल 8.2 अरब आबादी में से दो अरब से भी ज्यादा लोग पानी और भोजन की गंभीर समस्या का सामना करने को विवश होंगे। गौरतलब है कि ग्लेशियरों की धरती पर जल चक्र बरकरार रखने में महत्वपूर्ण भूमिका है। ग्लेशियरों का पानी ही नदियों के जरिए हमारे जीवन की धारा को आगे बढाता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के पिघलने कहें या सिकुड़ने से नदियों पर संकट दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। हकीकत यह है कि जलवायु परिवर्तन के चलते ग्लेशियरों के सिकुड़ने और पर्वतीय क्षेत्रों में दिनोंदिन घटती बर्फबारी के कारण दुनिया की दो तिहाई खेती योग्य जमीन के प्रभावित होने की प्रबल आशंका है। 

समूची दुनिया में तकरीब 2.75 लाख से भी ज्यादा ग्लेशियर सात लाख से अधिक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कवर करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो दुनिया के सभी 19 ग्लेशियर क्षेत्रों में लगातार तीसरे वर्ष यानी 2022, 2023 और 2024 में अभूतपूर्व नुकसान देखा गया है। इस बारे में यदि विश्व मौसम विज्ञान संगठन की मानें तो इसमें नार्वे, स्वीडन और स्वालबार्ड सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं। यही नहीं अमेरिका की कोलोराडो नदी तो 2020 में ही सूख चुकी है। यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल आंड्रे एंजुले का कहना है कि ग्लेशियर और पर्वतीय जल स्रोतों पर हम पूरी तरह निर्भर हैं। क्योंकि दुनिया में पेयजल का 70 फीसदी हिस्सा इन्हीं ग्लेशियरों में संरक्षित है। जलवायु परिवर्तन के चलते इनके तेजी से पिघलने से पेयजल के इन सबसे बड़े स्रोतों के अस्तित्व पर संकट है। इसलिए इन्हें बचाना समय की सबसे बड़ी जरूरत है। क्योंकि ग्लेशियर हैं तो जल है, जल है तो जीवन है और जीवन है तो हम हैं। 

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और नेशनल स्रो एण्ड आइस डेटा सेंटर के शोध से यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है कि वर्ष 2010 के पहले आर्कटिक और अंटार्कटिका में जो बर्फ की चादर बिछी होती थी, उसमें अब लाखों वर्ग किलोमीटर की कमी हो गई है। वहां अब मात्र 143 लाख वर्ग किलोमीटर बर्फ बची है। यह 2017 के 144 लाख वर्ग किलोमीटर के पिछले निम्नतम स्तर से भी नीचे चली गई है। 2000 और 2023 के बीच ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका के ग्लेशियरों ने हर साल लगभग 270 अरब टन बर्फ को खो दिया है। एक वर्ष में 270 अरब टन बर्फ का नुकसान पूरी वैश्विक आबादी द्वारा 30 वर्ष में खपत किए जाने वाले पानी के बराबर है। इस बारे में मैरीलैंड के ग्रीनबेल में नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वैज्ञानिक लिनेन बोइसवर्ट का कहना है कि अगली गर्मियों के मौसम में हमारे पास बहुत कम बर्फ बचेगी। इसमें मानवीय गतिविधियों, मुख्यत जीवाश्म ईंधन के जलने से हुई तापमान में बढ़ोतरी अहम है। जहां तक हिमालयी ग्लेशियरों का सवाल है, सरकार की ओर से 2023 में संसद में पेश रिपोर्ट में बताया गया था कि हिमालय के ग्लेशियर अलग-अलग दर से तेजी से पिघल रहे हैं। भारत,  नेपाल, भूटान, चीन और पाकिस्तान तक फैली हिमालयी पर्वत श्रृंखला में लगभग 9,575 ग्लेशियर हैं। बीते तीन दशकों के दौरान ये ग्लेशियर 20 से 30 फीसदी पिघले हैं।

जलवायु परिवर्तन का परिणाम है कि बीते 40 सालों में हिमालय से 440 अरब टन बर्फ  पिघल चुकी है। जी बी पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के निदेशक प्रो.सुनील नौटियाल की मानें तो अकेले 2010 में ही 20 अरब टन हिमालय के ग्लेशियरों से पिघली है। अगर ऐसा ही रहा तो इसके गंभीर दुष्परिणाम सामने आएंगे। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस की चिंता का सबब भी यही है। वे वैज्ञानिकों की इस चेतावनी से भी बेहद चिंतित हैं कि इस सदी के अंत तक हिंदूकुश हिमालयी क्षेत्र के 75 फीसदी ग्लेशियर नष्ट हो जाएंगे। इसीलिए उन्होंने जीवाश्म ईंधन के युग को समाप्त करने पर बल दिया है। ऐसी विषम स्थिति में ग्लेशियरों को बचाना महज बर्फ को बचाना नहीं है बल्कि अपने भविष्य को बचाना है। यह याद रखना होगा कि ग्लेशियर मात्र बर्फीले शिखर ही नहीं हैं, वे हमारे भविष्य की जड़ें हैं। इसलिए हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव के साथ-साथ हिमालय क्षेत्र में मानवीय दखलंदाजी पर अंकुश, जलवायु परिवर्तन के दानव और कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगानी ही होगी, तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। 

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-ज्ञानेन्द्र रावत
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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