जातिवादी सोच और ऊंच-नीच के व्यवहार को देखकर मैंने मेरे उपनाम से शर्मा हटाया: कैलाश
कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा ‘दियासलाई’ का लोकार्पण हुआ
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा ‘दियासलाई’ का लोकार्पण हुआ।
जयपुर। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा ‘दियासलाई’ का लोकार्पण हुआ। यह पुस्तक सत्यार्थी की जीवन यात्रा, उनके संघर्ष और दुनियाभर के बच्चों को शोषण से मुक्त करने की उनकी प्रेरक कहानी को दर्शाती है। लोकार्पण के दौरान कैलाश सत्यार्थी ने आत्मकथा के अध्यायों और उससे जुड़े अपने अनुभवों को साझा किया। ‘दियासलाई’ के 24 अध्यायों में कैलाश सत्यार्थी ने विदिशा के एक साधारण पुलिस कांस्टेबल के परिवार में जन्म से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान और नोबेल शांति पुरस्कार तक की अपनी यात्रा को लिखा है।
बच्चों को शोषण मुक्त करने के संघर्ष :
सत्यार्थी की जीवनी किशोरावस्था में सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देने से लेकर बच्चों को शोषण मुक्त करने के संघर्ष की प्रेरक गाथा है। बैठक में पुस्तक पर चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि एक बार कैसे तथाकथित अछूत महिला के हाथों से खाना खाने पर उन्हें उनके ही समाज ने बहिष्कृत कर दिया और उन्हें एक छोटे से कमरे में परिवार से अलग अकेले वक्त बिताना पड़ा। उस प्रकरण के बाद ही उन्होंने अपना जातीय उपनाम शर्मा हटाने का फैसला किया और मैं सत्यार्थी बन गया। नोबेल पुरस्कार मिलने पर कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और यहां तक कि नोबेल समिति के सदस्यों ने मुझसे पूछा कि एक या दो वाक्यों में बताएं कि आपने अपने जीवन में क्या हासिल किया है? तो, मेरा जवाब बहुत सरल था कि मानवता के लिए मेरा सबसे विनम्र योगदान यह है कि मैं सबसे उपेक्षित और गुमनाम बच्चों को सामने लाने में सक्षम रहा। यही वजह है कि अब उन बच्चों की सुनवाई हो रही है। कोई भी सरकार उन्हें अनदेखा नहीं कर सकती, जो सदियों से गुमनाम रहे हैं। पुस्तक चर्चा में युवा एकता फाउंडेशन की संस्थापक ट्रस्टी पुनीता रॉय और वरिष्ठ लेखिका नमिता गोखले ने भी हिस्सा लिया।
इनकों किया समर्पित :
कैलाश सत्यार्थी ने आत्मकथा को अपने माता-पिता और उन तीन साथियों को समर्पित किया है। जिन्होंने बाल श्रम, शोषण और अन्याय से बच्चों को बचाने की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति दी। उनकी आत्मकथा का विमोचन छह ऐसे युवाओं ने किया, जिन्हें कभी बाल श्रम से मुक्त कराया गया था। ये युवा किंशु कुमार, ललिता दुहारिया, पायल जांगिड़, शुभम राठौड़, कलाम और मनन अंसारी रहे। वे आज अपनी-अपनी सफलताओं के साथ समाज में बदलाव ला रहे हैं।
दुनिया को बेहतर बनाने की है अपार संभावनाएं :
आत्मकथा में सत्यार्थी लिखते हैं अंधेरे का अंत हमेशा किसी छोटी सी चिंगारी से होता है। जैसे माचिस की एक तीली सदियों के घने अंधेरे को चीरकर रोशनी फैला सकती है। वैसे ही हर व्यक्ति के भीतर दुनिया को बेहतर बनाने की अपार संभावनाएं छुपी होती हैं। जरूरत है उन्हें पहचानने और रोशन करने की।
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