काशी और तमिलनाडु के सदियों पुराने रिश्ते
तमिलनाडु के बड़ी संख्या में लोग यहां संस्कृत की पढ़ाई करने आते थे
केन्द्र की बीजेपी सरकार तथा कुछ सांस्कृतिक संगठनों ने काशी और तमिलनाडु के बीच सैकडों वर्ष पुराने इन संबंधों को फिर से पुनर्जीवित करने और इन्हें मजबूत करने के एक कार्यक्रम का हाल में आयोजन किया। इस कार्यक्रम का नाम काशी तमिल संगम रखा गया है।
सदियों पूर्व एक ऐसा समय था जब धुर दक्षिण स्थित तमिलनाडु से बड़ी संख्या में हिन्दू काशी की यात्रा पर आते थे तथा काशी विश्वनाथ मंदिर में बाबा के दर्शन करके अपने आपको धन्य समझते थे। यह यात्रा बहुत लम्बी होती थी, जो बैल गाड़ियों जैसे साधनों से महीनों में पूरी की जाती थी। अगर पुराने इतिहास को खंगला जाए तो यह बात सामने आती है कि तमिलनाडु के रामेश्वरम से काशी (बनारस) तक के लम्बे मार्ग पर कुछ- कुछ मीलों के अन्तराल पर चातारम (धर्मशालाएं) बनी हुई थी। इन स्थानों पर तीर्थयात्री विश्राम करते थे। यहां उन्हें भोजन के अलावा अन्य सभी प्रकार के सुविधाएं निशुल्क दी जाती थी। ये धर्मशालाएं 18वीं सदी में पूरी तरह से अस्तित्व में थी। लेकिन अचानक एक दिन ईस्ट इंडिया कम्पनी, जिसका इस क्षेत्र पर आधिपत्य था, ने इन धार्मशालाओं को तोड़ने का आदेश दिया। उस समय तंजवौर के राजा ने कम्पनी के अधिकारियों को एक पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि इन धर्मशालाओं को नष्ट नहीं किया जाए, क्योंकि हर साल काशी जाने वाले तमिलनाडु के हिन्दू तीर्थ यात्रियों को कोई मुश्किल नहीं आए। लेकिन उनके अनुरोध को नहीं माना गया।
उस समय काशी और तमिलनाडु की बीच मजबूत सांस्कृतिक और धार्मिक रिश्ता था। तमिलनाडु के बड़ी संख्या में लोग यहां न केवल संस्कृत की पढ़ाई करने आते थे बल्कि वेदों जैसे आदि ग्रथों का अध्ययन भी करते थे। काशी विश्वनाथ मंदिर उनकी आस्था का एक बड़ा केंद्र था। आज की तरह उस समय दक्षिण के इस प्रदेश में देश के अलगाव की कोई भावनाएं नहीं थीं। उस समय एक प्रकार से भारत के एक होने की अनुभूति थी।
हजारों किलोमीटर दूर स्थित देश के इन दोनों स्थानों के बीच धार्मिक तथा सांस्कृतिक भावनाएं इतनी अधिक मजबूत थी। तमिल भाषा के महाकवि सुब्रमनियम भारती, जिन्हें राष्टÑीय कवि होने का गौरव प्राप्त है। विश्व के इस सबसे अधिक पुरातन शहर में आकर बस गए थे। आज भी उनके परिवार के सदस्य यही रहते हैं। तमिलनाडु से आने वाले तीर्थयात्री पवित्र गंगा नदी के केदार घाट पर पूजा पाठ करते हैं। इसके पास ही तमिल भाषी लोगों का एक पूरा का पूरा मोहल्ला बसा हुआ है। लेकिन आजादी के बाद तमिलनाडु में हिंदी के विरोध के चलते तथा देश से अलग होने की बात को लेकर यहां तमिलनाडु से आने वाले तीर्थ यात्रियों के संख्या भी कम होती चली गई।
केन्द्र की बीजेपी सरकार तथा कुछ सांस्कृतिक संगठनों ने काशी और तमिलनाडु के बीच सैकडों वर्ष पुराने इन संबंधों को फिर से पुनर्जीवित करने और इन्हें मजबूत करने के एक कार्यक्रम का हाल में आयोजन किया। इस कार्यक्रम का नाम काशी तमिल संगम रखा गया है। नवम्बर के तीसरे सप्ताह से शुरू हुआ यह आयोजन एक माह से भी अधिक समय जारी रहेगा। इस कार्यक्रम के अंतर्गत हर कुछ दिन के अंतराल पर रेल से लगभग 250 यात्रियों के एक जत्था तमिलनाडु से यहां पहुंचेगा तथा वह एक सप्ताह तक यहां रहकर यहां के अलग-अलग धार्मिक स्थलों का भ्रमण करेगा। कुल मिलाकर 12 जत्थे यहां आएंगे। इस प्रकार लगभग 3,000 लोग तमिलनाडु के अलग हिस्सों से यहां लाए जाएंगे। प्रत्येक जत्था काशी के अलावा अयोध्या तथा प्रयागराज भी जाकर मंदिरों के दर्शन करेगा। प्रत्येक जत्थे में अलग-अलग व्यवसाय और क्षेत्र के लोग होंगे। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी इन सारे कार्यक्रमों का केंद्र बिंदु बनाया गया है।
यहां न केवल एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया है बल्कि काशी को तमिलनाडु से जोड़ने वाले विषयों पर सेमिनारों का आयोजन किया जाएगा। बीजेपी और इससे जुड़े संगठन इस कार्यक्रम को इतना अधिक महत्व दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां आकर इस आयोजन का शुभारंभ किया। वैसे भी बनारस मोदी का संसदीय चुनाव क्षेत्र है।
इतिहासकार बताते है कि बनारस और कांजीवरम के सिल्क की साड़ियों के बीच नजदीक का रिश्ता है। एक समय था जब बनारस को कांची से जोड़ने वाले मार्ग को सिल्क रूट कहा जाता था। चूंकि यहां के सामान्य आदमी के लिए यहां की यात्रा करना मुश्किल था, इसलिए तमिलनाडु के विभिन्न रियासतों के राजाओं ने अपने राज्यों में काशी मंदिरों का निर्माण करवाया था। राज्य शैव साम्प्रदा, बड़ी संख्या में है। इसलिए एक रियासत के राजा ने तो अपने यहां जो काशी मंदिर बनवाया, वह काशी के विश्वनाथ मंदिर का हू-ब-हू रूप है। आयोजकों का कहना है कि अब इस कार्यक्रम का आयोजन साल में किया जाएगा, ताकि काशी और तमिलनाडु के बीच पुराने संबंध फिर से बन सकें और मजबूत हो सकें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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