सतरंगी सियासत
जानें इंडिया गेट में क्या है खास
एजेंडा विकास का...
मोदी सरकार के कार्यकाल में जनसंघ से चले आ रहे भावनात्मक मुद्दे लगभग पूरे हो चुके। बात जम्मू-कश्मीर के अनुच्छेद -370 की हो या राम मंदिर निर्माण की। अब तो काशी विश्वनाथ कोरिडोर का उद्घाटन भी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियो की मौजूदगी में हो चुका। ऐसे में विकास पर फोकस करते हुए भाजपा अब ओबीसी की गोलबंदी कर रही। इसी पर भाजपा नेतृत्व भविष्य में राजनीतिक दांव खेलने की तैयारी में। सो, विपक्ष के समीकरण गड़बड़ाना स्वाभाविक। उसकी परेशानी भी यही। जब ओबीसी आरक्षण विधेयक लाया गया। तो उसे सरकार के साथ आना मजबूरी हो गया। विपक्ष को तमाम हंगामें, विरोध के बीच सदन में रहकर समर्थन करना पड़ा। वैसे ही, जैसे सवर्ण आरक्षण विधेयक पर। कांग्रेस अल्पसंख्यक, दलित, ईसाई वोट को ध्यान में रखकर दशकों तक राजनीति करती रही। लेकिन भाजपा का फोकस अब ओबीसी पर। क्योंकि इसके वोटरों की तादात आधी से ज्यादा। और लगभग हर दल की इन पर गहरी नजर। लेकिन भाजपा इस पर काम भी आगे बढ़ा चुकी।
चतुरसुजान पवार!
एनसीपी के मराठा क्षत्रप शरद पवार यूं ही दशकों से राजनीति में नहीं बने हुए। वह महाराष्टÑ ही नहीं। देश की राजनीति में भी मजबूत स्तंभ और मंजे हुए खिलाड़ी। अब एनसीपी कह रही। कांग्रेस से ही नहीं। न ही टीएमसी की ममता बनर्जी। शरद पवार 2024 में पीएम पद के उम्मीदवार लायक। असल में, ममता बनर्जी ने दावा कर दिया कि कोई संप्रग नहीं। कांग्रेस के बिना भी विपक्षी मोर्चा संभव। वहीं, शिवसेना ने कहा, बिना कांग्रेस, भाजपा से लड़ना आसान नहीं। जबकि पवार पहले शिवसेना और ममता दीदी को साथ लेकर आगे बढ़ते रहे। अब खद ही अपना नाम आगे कर रहे। उन्हें आजकल केन्द्र सरकार से कुछ ज्यादा ही परेशानी। सहकारिता के मामलों में भी और राजनीतिक भी। ऐसे में बंगाल में ममता को झटका और केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस को। यानी, बंगाल में ममता अटकेंगी और देश में कांग्रेस खद अपने ही समविचारी दलों से ही उलझेगी। काम आसान होगा मोदी-शाह की जोड़ी का। हां, पवार की आयु जरुर रोड़ा।
एक और फैसला ...
मोदी सरकार ने एक और बड़ा फैसला कर डाला। चुनाव सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए अब आधार कार्ड के साथ मतदाता पहचान पत्र भी जुड़ेगा। फिलहाल यह स्वेच्छिक रखा गया। लेकिन देर सबेर वैसे ही लागू होगा। जैसे बैंक खाते, पैन नंबर, मोबाइल समेत कई महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट को आधार नंबर से जोड़ा गया। हालांकि यह कदम चुनाव आयोग की सिफारिशों के आधार पर उठाया गया। लेकिन बात इच्छा शक्ति की भी। मतलब भविष्य में फर्जी वोटिंग पर काफी हद तक रोक लगेगी। साथ में, एक वोटर का एक से ज्यादा स्थानों पर नामांकन कराने की प्रवृत्ति भी रूकेगी। सरकार तो ऑनलाइन वोटिंग की ओर भी आगे बढ़ रही। क्योंकि बड़ी संख्या में मतदाता मतदान केन्द्र तक किसी न किसी कारण पहुंच ही नहीं पाते। जिसका खामियाजा सभी को भुगतना पड़ता है। मतलब, लोग भविष्य में घर बैठे ही वोट डाल सकेंगे। पीएम मोदी पहले से ही ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का नारा दे चुके। मानकर चलिए, इसके दूगामी परिणाम होंगे।
महज संयोग!
अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में यूपी पर देशभर की नजरें। लेकिन पंजाब भी अच्छा खासा चर्चा में। क्योंकि एक तो, कैप्टन अमरिन्दर सिंह कांग्रेस से बाहर आ गए। और दूसरा, दशकों से चला आ रहा अकाली दल एवं भाजपा का गठबंधन भी टूट गया। लेकिन पंजाब के रण में एक और दिलचसप तथ्य। राज्य में आजकल राजस्थान के दो नेताओं को चुनाव प्रभारी जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी। एक, हरीश चौधरी गहलोत सरकार में मंत्री रहे। दूसरे, गजेन्द्र सिंह शेखावत। जो मोदी सरकार में काबिना मंत्री। हरीश चौधरी जहां कैप्टन अमरिन्दर सिंह की बगावत से बावस्ता। जबकि शेखावत वह नेता। जिनके कंधों पर पंजाब में भाजपा की चुनावी जड़ें जमाने की भी जिम्मेदारी। भाजपा पहली बार अकाली दल की छाया से बाहर निकलकर अकेले चुनावी मैदान में उतरेगी। सो, पंजाब में मरुधरा के दो लालों की कड़ी राजनीतिक परीक्षा। जहां शेखावत आलाकमान की पसंद। तो चौधरी की पहचान सीएम गहलोत के शागिर्द के रुप में भी। वैसे वह पिछले चुनाव में भी काम कर चुके।
दर्द-ए-पीके...
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत कुमार यानी पीके आजकल बदले-बदले से। वह कांग्रेस के प्रति आक्रामक। ममता बनर्जी को ऐसी सलाह दे डाली कि वह कांग्रेस का एक-एक करके कई राज्यों में विकट उड़ा रहीं। जो कांग्रेस के लिए असहजता का सबब बन रहा। असल में, पीके के कांग्रेस में शामिल होने की बात लगभग पक्की थी। लेकिन अचानक पीके को अपना ‘बिजनेस’ याद आ गया। सो, राहुल के सामने शर्त रख दी। कहा, वह उनके एडवाइजर होंगे। इस नाते वह सिर्फ उन्हें ही रिपोर्ट करेंगे। साथ में, सीडब्ल्यूसी की बैठकों में भी मौजूदगी चाहिए। लेकिन राहुल गांधी ने इसके लिए औपचारिक रूप से पार्टी में शामिल होने की शर्त रख दी। लेकिन यह पीके को सूट नहीं किया। क्योंकि यदि वह कांग्रेस का हिस्सा हो जाते। तो देशभर में अन्य दलों या क्षेत्रीय नेताओं के साथ काम नहीं कर पाते। इसीलिए पीके बात बिगड़ने पर लगातार कांग्रेस के खिलाफ मुखर तो हो ही रहे। अब भाजपा और पीएम मोदी की भी तारीफ में कशीदे गढ़ रहे।
एजेंडा ‘डि-रेल’ तो नहीं?
यह संसद के शीतकालीन सत्र का अंतिम सप्ताह। लेकिन पहले ही दिन 12 विपक्षी सांसद राज्यसभा से निलंबित किए गए। कहीं सरकार ने सांसदों को निलंबित करवाकर विपक्षी एजेंडे को ‘डि-रेल’ तो नहीं कर दिया? बाद में, लखीमपुर खिरी मामले में एसआईअी की रिपोर्ट आ गई। तो विपक्ष केन्द्रीय मंत्री अजय कुमार मिश्र के इस्तीफे की मांग पर अड़ गया। जबकि भाजपा यह काम फिलहाल नहीं करेगी। यूपी में चुनावी मौके पर भाजपा उन्हें हटाने का जोखिम लेगी। ऐसा लग रहा। क्योंकि कोई भी कदम उठाया गया। तो भाजपा का चुनावी समीकरण गड़बड़ाना संभव। ऐसे में कहीं पूरे सत्र में विपक्ष, सरकार की रणनीति में फंसकर तो नहीं रह गया? सांसद निलंबन प्रकरण के दो दिन बाद विपक्ष को समझ आया कि इससे तो बाकी मुद्दों पर तो सरकार घेरने का तो अवसर ही नहीं मिला। जबकि किसान, महगांई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था, कोरोना प्रबंधन जैसे मुद्दों पर सरकार से सदन में सवाल करने थे। कहीं विपक्ष को सरकार ने भटका तो नहीं दिया?
श्रीनाथ मेहरा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Comment List