आजादी से पहले हॉकी में ‘दद्दा’ का ऐसा खौफ: कहीं भारत की टीम से हार ना जाएं, इसलिए ओलंपिक ही छोड़ भागे थे अंग्रेज

खेल दिवस पर विशेष, बेटे अशोक कुमार ने बताए ध्यानचंद से जुड़े कुछ रोचक किस्से

आजादी से पहले हॉकी में ‘दद्दा’ का ऐसा खौफ: कहीं भारत की टीम से हार ना जाएं, इसलिए ओलंपिक ही छोड़ भागे थे अंग्रेज

अशोक कुमार कहते हैं कि अपने आखिरी दौर में भी बाबूजी की जुबां पर हॉकी की चर्चा ही थी।

जयपुर। देश को आजादी भले ही 1947 में मिली लेकिन भारतीय हॉकी टीम में दद्दा (ध्यानचंद) की मौजूदगी का खौफ तो अंग्रेजों में 20 साल पहले ही दिख गया जब इंग्लैंड हॉकी टीम 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक से पहले ही खेल से बाहर हो गई और फिर उन्होंने भारत की आजादी तक ओलंपिक में हॉकी नहीं खेली। एम्सटर्डम में भारत की पहली स्वर्णिम जीत और दद्दा के ध्यान सिंह से ध्यानचंद और हॉकी के जादूगर बनने जैसे कुछ रोचक बाकये बेटे अशोक कुमार ने नवज्योति के साथ साझा किए।कुआलालंपुर में भारत की 1975 वर्ल्ड कप जीत का हिस्सा रहे अशोक कुमार ने बताया कि 1925 के साल में भारत में हॉकी संघ बना और 1927 में उसे इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन से मान्यता मिल गई। ऐसे में 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में पहली बार भारत की भागीदारी का रास्ता खुला। जयपाल सिंह की कप्तानी में भारत की 16 सदस्यीय टीम  में ध्यानचंद भी शामिल थे। 

एक हार से डर गए अंग्रेज
अशोक कुमार ने बताया कि एम्सटर्डम पहुंचने से पहले भारतीय टीम 20 दिन लंदन में रुकी। इस दौरान टीम ने कई अभ्यास मैच खेले। लंदन में एक प्रदर्शनी मैच में भारत ने इंग्लैंड की राष्ट्रीय टीम को 4-0 से हरा तहलका मचा दिया। इस हार से अंग्रेज ऐसे बौखलाए कि ओलंपिक में हिस्सा नहीं लेने का फैसला कर लिया। इसका कारण यही था कि ब्रिटिश राज ओलंपिक में एक मातहत देश की टीम से हारने के लिए तैयार नहीं था। और फिर अंग्रेजों ने भारत की आजादी तक हॉकी में हिस्सा ही नहीं लिया।

ऐसे बने ध्यान सिंह से ध्यानचंद और हॉकी के जादूगर
एम्सटर्डम ओलंपिक हॉकी में 9 देशों ने हिस्सा लिया। भारत ने शुरुआती ग्रुप मैच में आॅस्ट्रिया को 6-0 से हराया। फिर बेल्जियम को 9-0, डेनमार्क को 5-0 और स्विटजरलैंड को 6-0 से हरा फाइनल में कदम रखा और मेजबान हालैंड को 3-0 से हरा पहली बार स्वर्ण पदक अपने नाम किया। भारत ने इस दौरान कुल 29 गोल किए, जिसमें 14 गोल ध्यानचंद की स्टिक से निकले। अशोक कुमार ने बताया कि तब अखबारों में लिखा गया कि एक सांवला लड़का भारत से आया है, जिसकी स्टिक से गेंद ऐसे चिपक कर चलती है, जैसे वह कोई जादूगर हो। और यहीं से ध्यानचंद को मिला हॉकी के जादूगर नाम। उन्होंने कहा कि उस दौर में खेल में उनकी चमक ने ही उन्हें ध्यान सिंह वैंस से ध्यानचंद बना दिया था। 

आज तक क्यों नहीं मिला देश को दूसरा ध्यानचंद
इस सवाल पर खुद हॉकी के बड़े खिलाड़ी रहे अशोक कुमार ने कहा कि इसे न हम कभी समझ पाए और न खुद दद्दा यह बता सके कि उनमें ऐसी क्या खूबी थी। वे भी बस यही कहते थे कि मैं बता नहीं सकता, आप मुझे खेलते देखकर खुद तय करो। अशोक कुमार ने कहा कि उन्हें खेलते देख लगता था जैसे उनका शरीर और उनका दिमाग हॉकी के लिए ही बना हो। खेल के दौरान उनका इमेजनी पावर, गेंद पर उनका कंट्रोल और इस खेल के लिए उनके माइंडसेट ने ही उन्हें इस खेल का ऐसा विलक्षण खिलाड़ी बना दिया कि सेना में एक सिपाही के रूप में भर्ती ध्यानचंद जब रिटायर हुए तो पंजाब बटालियन से मेजर ध्यानचंद बनकर निकले। 

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अधूरी रह गई इंग्लैंड के सामने खेलने की हसरत
अशोक कुमार कहते हैं कि अपने आखिरी दौर में भी बाबूजी की जुबां पर हॉकी की चर्चा ही थी। वो देश में हॉकी में गिरावट का दौर था और बिस्तर पर लेटे बाबूजी आने वाले हर किसी शख्स से यही सवाल करते कि देश में इतने अच्छे खिलाड़ी हैं, फिर वे हॉकी का स्तर क्यों नहीं ऊपर ला पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि बाबूजी की दो हसरतें थीं, जो अधूरी रह गईं। एक तो वे कभी ओलंपिक हॉकी में इंग्लैंड के सामने नहीं खेल सके और दूसरा उनके जीतेजी देश की हॉकी फिर उस मुकाम तक नहीं पहुंच सकी, जहां वे उसे फिर से देखना चाहते थे।

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