संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही

प्रसन्ना के आकाश में सुमन का खिलना कोई आसान नहीं...

संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही

शिक्षिका की सरकारी नौकरी छोड़ समाज सेवा का उठाया बीड़ा।

कोटा। प्रसन्ना भंडारी के विशाल आकाश में सुमन का खिलना कोई आसान काम नहीं था। यहां सास के विशाल आभा मंडल और समाज सेवा के समर्पण में सुमन रूपी फूल की पहचान बनाना किसी चुनौती से कम नहीं है। लोगों को लगता है कि सुमन भंडारी  समाज सेविका प्रसन्ना भंडारी द्वारा तैयार की करणी विकास समिति, शिशु गृह, आश्रय, श्रद्धा वृद्धा आश्रम के  विरासत में मिले सेटअप को ही आगे बढ़ा रही है, ऐसा नहीं है। आकाश की कोई सीमा नहीं है ऐसे ही समाज सेवा के पथ पर चलना कोई आसान काम नहीं है। जो लोगों दिखता है वैसा होता नहीं उसके पीछे एक संघर्ष छिपा होता है जो सुमन को सुमन भंडारी बनाया है। आज से 39 साल पहले 1985 में पहली बार भंडारी परिवार में शादी करके आई तो यहां देखा की सासू मां नवजात बच्चों की देखभाल का एक बाल शिशु गृह स्वयंसेवी संस्था चला रही थी।  जब में इस घर में आई में सरकारी नौकरी में बतौर शिक्षिका थी। मैने देखा पूरा परिवार ही इन नवजात अनाथ बच्चों के लालन पालन में जुटा  है तो पहले तो मुझे अजीब लगा चहुंओर बच्चे ही बच्चे उनकी देखभाल में ससूरजी सासू मां के काम हाथ बंटा रहे है। बच्चों के डाइपर बदल रहे तो कोई पोटी साफ कर रहा है। पहले लगा यह क्या है। मैं जिस परिवेश से आई वहां के और ससुराल के माहौल में जमीन आसमान का अंतर था। मेरे पिता पुलिस में डिप्टी की पोस्ट पर थे। पूरा परिवार अनुशासन और पढ़ाई वाला था जबकि ससुराल में सारा उल्टा पति, सास, ससुर सभी समाज सेवा में लगे हुए थे। जब पहली बार शादी करके ससुराल आई तो वहां देखा की सासू मां के बेड पर पांच छह नन्हें शिशु सो रहे थे। एक बार लगा यह क्या है। फिर इसकी आदत हो गई मुझे यह सब करने में आनंद आने लगा। 

मेरी बेटी  भी घर में पल रहे छोटे बच्चों के बीच ही बड़ी हुई
छोटे बच्चों की देखभाल और नौकरी करते के दौरान ही हमारे घर बेटी का जन्म हुआ। घर में पहले ही पांच बच्चे थे बेटी और आ गई तो परिवार बढ़ गया। अब एक साथ छह बच्चों को देखना होता तो कई बार बाकी बच्चों के साथ बेटी को सुला देती थी। कई बार बच्चो को गोद लेने के लिए लोग घर पर आते तो बच्चों के बीच सोई मेरी बेटी को ही पंसद करते उस समय मेरी सास कहती यह तो मेरी पौती है। तो लोग कहते तुम्हारी बहू को अनाथ बच्चों और अपनी बेटी कोई फर्क नहीं लगता है क्या? पता नहीं चला इन बच्चों के बीच कब मेरी बेटी बड़ी हो गई। मेरे दो बेटे एक बेटी लेकिन मैने अनाथ बच्चों मेरे बच्चों कोई फर्क नहीं किया। 

बीमार बच्ची को छोड़कर काउंसिंग करने गांव पहुंची
एक दिन मुझे एक कैंप में जाना था बच्ची को छोटी माता निकली थी। सुबह 4 बजे निकलना था रात परेशान थी सास ने कहा तुम्हे कैंप में जाना जरूरी है। बच्ची को मैं देख लूंगी वो बेटी को अपने साथ सेंटर पर लेकर गई मन नहीं माना लेकिन कैंप में जाना जरूरी था बीमार बच्ची को छोड़कर समाज सेवा के कैंप में जाकर काउंसिंग की और देर रात घर लौटी। लोगों ने कहा जॉब छोड़ दो लेकिन परिवार वालों कभी मुझे नहीं कहा नौकरी छोड़ दो। मैने जॉब और परिवार में संतुलन बिठाना सीख लिया था। 

संयुक्त परिवार में नौकरी करना नहीं था आसान
नौकरी करते हुए समाज सेवा करना आसान ही था। इसके लिए टाइम मैनेजमेंट करना पड़ता है। सुबह 5 बजे उठकर संयुक्त परिवार का नाश्ता खाना बनाना और फिर नौकरी पर जाना आसन नहीं था। जैन परिवार में सूर्य अस्त के बाद खाना नहीं खाते है शाम को स्कूल से आकर भरे पूरे परिवार का खाना बनना आसान नहीं था दिनभर की थकान और आते बिना साड़ी चेज किए किचन में घुसना और समय पर आठ दस लोगों के लिए खाना बनाना चुनौती था। उस पर छोटे बच्चों संभालने में माताजी मदद करना मेरे लिए आसन नहीं था लेकिन सास ने टाइम मैनेमेंट सिखाया तो सब आसान हो गया। 

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अनाथ बच्चों की देखभाल के लिए शादी के चार साल बाद छोड़ दी नौकरी
प्रसन्ना भंडारी के शिशुगृह में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी उस समय आया नहीं मिलती थी। माताजी के काम हेल्प कराने के बाद उन पर भार बढ़ रहा था। मेरा जॉब में ट्रांसर्फर होते रहते ऐसे में परिवार, समाज सेवा और छोटे बच्चों को संभालना आसान नहीं था। इसलिए मैंने सास के काम को आगे बढ़ाने की सोची और शादी के चार साल बाद 1989 सरकारी नौकरी छोड़ कर बच्चों की सेवा में जुट गई। उस समय करणी नगर विकास समिति स्थान पर फैमिली काउंसिलिग सेंटर चलता था। मैने एम ए अर्थशास्त्र में किया था। बीएड किया हुआ था। ससुरजी ने कहा इस काउंसिंग सेंटर चलाने के लिए तुम समाज शास्त्र या मनोविज्ञान में एमए कर लो बाल गृह मम्मी संभाल रही है तुम इस सेंटर को चलाना। तब मैने उदयपुर से एमएसडब्ल्यू किया और समाज शास्त्र में एमए किया और काउंसिलिंग का प्रशिक्षण लिया। 1990 में पूरी तरह इस संस्था से जुड़ गई। बच्चों पढ़ना, टूटे घरों को फिर से जोड़ना यही जीवन का लक्ष्य बन गया।  

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