जिंदगी की जद्दोजहद में पिसते आम आदमी के संघर्ष की कहानी है ‘ज्विगाटो’

 जिंदगी की जद्दोजहद में पिसते आम आदमी के संघर्ष की कहानी है ‘ज्विगाटो’

कहानी शुरू होती है मानस के सपने से, जहां खूबसूरत लड़की के साथ होकर भी वो नौकरी के फॉर्म के लिए परेशान है, तभी आंख खुलती है और कड़वा सच रुपहले सपने को तार-तार कर देता है।

नवज्योति, जयपुर। कहानी है (कपिल) मानस महतो और उसके परिवार की जो जिंदगी और उसकी जरूरतों में पिसकर भी बेहतर जिंदगी की हसरत में छोटे-छोटे पलो में जीता है। मानस डिलीवरी एजेंट है, जो महामारी के बाद मजबूर हालातों में सरवाइव करता है। जहां ख्वाइशों की तपती हथेली पर उम्मीद की एक बूंद भी जीने का सबब होती है। कहानी शुरू होती है मानस के सपने से, जहां खूबसूरत लड़की के साथ होकर भी वो नौकरी के फॉर्म के लिए परेशान है, तभी आंख खुलती है और कड़वा सच रुपहले सपने को तार-तार कर देता है। कोरोनाकाल में कारखाने की नौकरी खोकर आठ महीने खाली बैठने के बाद मानस झारखंड से ओडिशा, नौकरी और बेहतर जिंदगी की तलाश में आता है, जहां उसे फूड डिलीवरी एप में डिलीवरी बॉय का काम मिलता है। मानस अपनी बुड्ढ़ी बीमार मां, पत्नी और स्कूल में पढ़ते बच्चों के साथ जीने लगता है, लेकिन चुनौतियों पसारा मार उसकी कुंडली में बैठी है। वह धीरे-धीरे महसूस करता है उसकी जिंदगी डिलीवरी, रेटिंग्ज, इंसेंटिव और पैसे की भागदौड़ में मशीन बन गई है। पत्नी प्रतिमां मालिश का काम करती है, लेकिन ज्यादा पैसा कमाने के लिए मॉल में सफाई कर्मचारी की नाइट ड्यूटी करना चाहती है, जो मानस नहीं चाहता। इस पर एक कस्टमर मानस पर शराब पीकर डिलीवरी देने का झूठा आरोप लगाता है। मानस का आईडी ब्लॉक होता है। सच जाने बगैर उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। अब क्या होगा मानस का, उसके परिवार का। क्या वो हालातों से लड़ेगा। यही है ज्विगाटो जो भारत की गिग इकॉनमी पर कटाक्ष करती है। क्लास, कास्ट के विभाजन को दर्शाती निर्देशक नंदिता दास की फिल्म परत दर परत खुल, गंभीर विषय को हल्के-फुल्के आगाज से अंजाम तक ले जाती है। कहानी अच्छी है, मगर स्लो पेस और कमजोर पटकथा के चलते अपना इंपैक्ट खो देती है। गंभीर कहानी के कॉमिक हीरो कपिल शर्मा की टाइमिंग कमाल है। वो सरलता से बेहद प्रासंगिक विषय को संवेदनशील रूप से हैंडल करते हैं। शाहाना पत्नी की रोल में जंचती है। सियानी गुप्ता, गुल पनाग,  स्वानंद किरकिरे ने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है। सिनेमेटोग्राफी अच्छी, लेकिन एडिटिंग ढीली है। पार्श्व संगीत कहानी के साथ ढला है। ओवरआॅल एक अच्छी कहानी को अच्छे से कहना नहीं आया मगर दिल तक बात जरूर पहुंचती है।             

- दानिश राही 

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