बचपन पर बोझ नहीं, संरक्षण चाहिए

बैग का वजन 

बचपन पर बोझ नहीं, संरक्षण चाहिए

हाल ही में 10 वर्षीय एक बच्चे की अचानक मृत्यु से जुड़ा समाचार केवल एक दुखद घटना नहीं है, बल्कि हमारे समय की सबसे गंभीर सामाजिक विडंबना का संकेत है।

हाल ही में 10 वर्षीय एक बच्चे की अचानक मृत्यु से जुड़ा समाचार केवल एक दुखद घटना नहीं है, बल्कि हमारे समय की सबसे गंभीर सामाजिक विडंबना का संकेत है। चिकित्सकों द्वारा बताए गए संभावित कारण अधूरी नींद, बिना नाश्ता स्कूल जाना, भारी स्कूल बैग, होमवर्क और प्रदर्शन का मानसिक दबाव, समय पर व पौष्टिक भोजन का अभाव,एक ऐसे तंत्र की ओर इशारा करते हैं, जिसमें बचपन लगातार कुचला जा रहा है। यह घटना हमें यह सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या हम बच्चों को बेहतर भविष्य देने की कोशिश में उनका वर्तमान छीन रहे हैं। आज का समाज उपलब्धियों की अंधी दौड़ में फंसा हुआ है। अभिभावक, शिक्षक और संस्थाएं,सभी किसी न किसी रूप में प्रतिस्पर्धा को जीवन का मूल मंत्र मान बैठे हैं। इस प्रतिस्पर्धा का सबसे कमजोर शिकार वे बच्चे हैं, जिनकी उम्र अभी खेलने, सीखने और सहज विकास की है।

बाल मनोविज्ञान :

चार-पांच साल की उम्र में जब बच्चा दुनिया को समझना शुरू करता है, तब उससे अपेक्षा की जाती है कि वह तय समय पर उठे, तय पाठ्यक्रम पूरा करे, परीक्षा में अव्वल आए और भविष्य की दिशा अभी से तय कर ले। यह सोच न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि अमानवीय भी है। बाल मनोविज्ञान स्पष्ट रूप से बताता है कि शुरुआती वर्षों में बच्चे का मस्तिष्क सबसे अधिक लचीला और संवेदनशील होता है। इस दौर में उस पर डाला गया दबाव उसके व्यक्तित्व, आत्मविश्वास और स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ता है। नींद की कमी, तनाव और भय की स्थिति में सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है। फिर भी, हम सुबह कच्ची नींद में बच्चों को जगाते हैं, उन्हें बिना नाश्ता कराए स्कूल भेज देते हैं और उनसे उम्मीद करते हैं कि वे पूरे दिन सक्रिय और एकाग्र रहेंगे। यह उम्मीद वास्तविकता से कोसों दूर है।

न्यायालयों के आदेश :

Read More जानें राज काज में क्या है खास 

भारी स्कूल बैग वर्षों से चर्चा का विषय रहे हैं। सरकारी दिशा-निर्देश और न्यायालयों के आदेशों के बावजूद, आज भी छोटे बच्चे अपने वजन से अधिक बोझ कंधों पर ढोते दिखाई देते हैं। यह केवल शारीरिक समस्या नहीं है, यह मानसिक संदेश भी देता है कि शिक्षा एक बोझ है, आनंद नहीं। जब शिक्षा बोझ बन जाती है, तो बच्चे के मन में सीखने के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। होमवर्क और परीक्षा का दबाव इस समस्या को और गहरा करता है। होमवर्क का उद्देश्य कक्षा में सीखी गई बातों को मजबूत करना होना चाहिए, न कि बच्चे को भयभीत करना। लेकिन व्यवहार में होमवर्क अक्सर दंड का रूप ले लेता है। अधूरा रहने पर डांट, सजा और तुलना,ये सब बच्चे के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाते हैं। वह सीखने के बजाय डरने लगता है, और यही डर आगे चलकर तनाव, चिंता और अवसाद का कारण बनता है।

Read More अरावली पर्वतमाला को बचाना जरुरी 

केवल अंक और पदवी :

Read More रूढ़ियों से मुक्ति की ओर राजस्थान

यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम बच्चों से आखिर चाहते क्या हैं। क्या हम उन्हें खुश, स्वस्थ और संवेदनशील इंसान बनाना चाहते हैं, या केवल अंक और पदवी हासिल करने वाली मशीन,जब अभिभावक अपने बच्चे को दूसरों से तुलना करते हैं, तो वे अनजाने में उसके मन में हीन भावना भर देते हैं। यह तुलना सामाजिक होड़ को जन्म देती है, जिसमें हर कोई आगे निकलने की कोशिश करता है, चाहे उसकी कीमत बच्चे का बचपन ही क्यों न हो। शिक्षा व्यवस्था को भी इस संदर्भ में आत्ममंथन करना होगा। स्कूल केवल पाठ्यक्रम पूरा करने की फैक्ट्री नहीं हैं। यदि स्कूलों में खेल, कला, संवाद और रचनात्मक गतिविधियों के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, तो शिक्षा अधूरी है। शिक्षक बच्चों के लिए केवल ज्ञानदाता नहीं, मार्गदर्शक और संरक्षक भी होते हैं। अनुशासन के नाम पर भय का वातावरण बनाना शिक्षा के मूल उद्देश्य के विपरीत है।

बैग का वजन :

स्कूल बैग का वजन, स्कूल समय,होमवर्क की मात्रा और प्रारंभिक कक्षाओं में परीक्षा प्रणाली,इन सब पर स्पष्ट और सख्त दिशा-निर्देशों की आवश्यकता है। क्या हम सचमुच आज के बच्चों से अधिक सक्षम थे, या हमें सीखने के लिए अधिक समय और स्वतंत्रता मिली थी,यदि हमने संघर्ष किया और आगे बढ़े, तो यह मान लेना कि हमारे बच्चे भी वही रास्ता अपनाएं, जरूरी नहीं। हर पीढ़ी की चुनौतियां और जरूरतें अलग होती हैं। यह भी समझना होगा कि सफलता का अर्थ केवल ऊंचा पद या अधिक वेतन नहीं है। एक संतुलित, संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बनना भी सफलता है। अंतत:, यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा है,क्या हम सचमुच बच्चों का भविष्य संवार रहे हैं, या अपने अहंकार और असुरक्षा को उनके कंधों पर लाद रहे हैं,यदि किसी उपलब्धि की कीमत बच्चे की सेहत, मुस्कान और जीवन है,तो वह उपलब्धि नहीं, विफलता है। अब समय आ गया है कि हम होड़ से हटकर संवेदना को चुनें। शिक्षा को भय से मुक्त करें, बचपन को बोझ नहीं, संरक्षण दें।

-डॉ. प्रियंका सौरभ
यह लेखक के अपने विचार हैं।

Related Posts

Post Comment

Comment List

Latest News

हरियाणा में बढ़ते नशे पर कुमारी सैलजा चिंतित : सरकार से की गंभीर कदम उठाने की मांग, कहा- युवाओं के लिए गंभीर खतरा बना नशा हरियाणा में बढ़ते नशे पर कुमारी सैलजा चिंतित : सरकार से की गंभीर कदम उठाने की मांग, कहा- युवाओं के लिए गंभीर खतरा बना नशा
नशा तस्करी से जुड़े गठजोड़ पर कड़ी कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा कि जो लोग इस अवैध...
जयपुर साइबर पुलिस की बड़ी सफलता : 10,000 यूएसडीटी की क्रिप्टो ठगी करने वाले आरोपी गिरफ्तार, पूरी क्रिप्टो एसेट्स बरामद
फिल्म ‘बैटल ऑफ गलवान’ का टीजर रिलीज, अपने अब तक के सबसे दमदार अवतार में नजर आ रहे सलमान खान
निर्वाचन आयोग ने पंचायतीराज चुनाव को लेकर दिए निर्देश, महिला वोटर को पर्दा हटाकर बतानी होगी अपनी पहचान
उपमुख्यमंत्री दिया कुमारी ने फुलेरा आंगनबाड़ी केंद्र का किया निरीक्षण, बच्चों से किया स्नेहपूर्ण संवाद
मेहनतकशों के लिए सम्मान और सहारा है अटल कैंटीन : गरम और पौष्टिक भोजन होगा उपलब्ध, रेखा गुप्ता ने कहा- सर्वांगीण विकास के लिए निरंतर मूलभूत सुविधाओं का विस्तार कर रही सरकार 
दूध पिलाकर करेंगे नववर्ष का अभिनंदन, सामाजिक बुराईयों से दूर रहने का करेंगे आह्वान