रूढ़ियों से मुक्ति की ओर राजस्थान

पंजीकरण अनिवार्य 

रूढ़ियों से मुक्ति की ओर राजस्थान

राजस्थान में यूं तो बाल विवाह की दर 25.4 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत 23.3 से थोड़ा ही ज्यादा है, लेकिन फिर भी यह राज्य बाल विवाह के कारण अक्सर चर्चा में रहता है।

राजस्थान में यूं तो बाल विवाह की दर 25.4 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत 23.3 से थोड़ा ही ज्यादा है, लेकिन फिर भी यह राज्य बाल विवाह के कारण अक्सर चर्चा में रहता है। इसके पीछे कुछ ऐतिहासिक कारण हैं, जिन्हें किसी समय समाज सुधारों की दिशा में क्रांतिकारी समझा जाता था। इसमें प्रमुख है आर्य समाज, जिसकी जड़ें राजस्थान में काफी गहरी हैं। आर्य समाज की पहली शाखाएं अजमेर और बीकानेर में 1880 के दशक के अंतक तक स्थापित हो चुकी थीं। धीरे-धीरे इसके प्रभाव का विस्तार पूरे राज्य में हो गया और इसने स्त्री शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में अहम योगदान दिया। इसने शादी विवाह में अनावश्यक खर्चों और आडंबर पर रोक लगाने के लिए सादा आर्य विवाह आंदोलन चलाया, जिससे सामूहिक विवाह समारोहों की प्रथा शुरू हुई। इन विवाह समारोहों में सभी जातियों और वर्गों के लोगों का एक साथ विवाह संपन्न होता था, जो रूढ़ियों और परंपराओं से बंधे इस राज्य में एक बेहद क्रांतिकारी कदम था।

सुधारवादी कदम :

यह सुधारवादी कदम राजस्थान के लिए प्रतिगामी बन गया, जब इन सामूहिक विवाह समारोहों में नाबालिग जोड़ों का विवाह संपन्न कराया जाने लगा। हालांकि राजस्थान सरकार इससे अंजान नहीं थी और अक्षय तृतीया के मौकों पर बाल विवाहों को रोकने के लिए सतर्कता बरतती थी, लेकिन फिर भी बड़े पैमाने पर बाल विवाह होते रहे। वर्ष 2024 में बाल अधिकारों की सुरक्षा व संरक्षण के लिए काम कर रहे नागरिक समाज संगठनों के देश के सबसे बड़े नेटवर्क जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन ने अक्षय तृतीया के दौरान बाल विवाहों की रोकथाम के लिए राजस्थान हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की। जेआरसी ने हाई कोर्ट को एक सीलबंद लिफाफे में एक सूची भी सौंपी, जिसमें कुल 57 बच्चों के बाल विवाह के ब्योरे दर्ज थे और इसमें 46 ऐसे थे, जिनका अक्षय तृतीया के दिन विवाह होना था।

अंतरिम आदेश जारी :

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हाई कोर्ट की खंडपीठ ने इस पर महज 36 घंटे में अंतरिम आदेश जारी करते हुए इन सभी 46 शादियों को रुकवाने का आदेश जारी किया। न्यायमूर्ति पंकज भंडारी और न्यायमूर्ति शुभा मेहता की खंडपीठ ने फैसले में कहा कि बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006 के बावजूद बाल विवाह हो रहे हैं। अदालत ने कहा कि राजस्थान पंचायती राज नियम 1996 के अनुसार बाल विवाह की रोकथाम का जिम्मा पंचों व सरपंचों का है। लिहाजा कहीं बाल विवाह होता है तो पंचों व सरपंचों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। पंचों व सरपंचों की जवाबदेही तय करने का फैसला गेमचेंजर साबित हुआ क्योंकि राज्य के शहरी इलाकों में जहां बाल विवाह की दर 15.1 है, वहीं ग्रामीण इलाकों में यह 28.3 प्रतिशत है। ग्रामीण इलाकों पर ध्यान केंद्रित करना होगा और हाई कोर्ट ने पंचायतों की जवाबदेही तय कर यही किया।

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चौंकाने वाली कमी :

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पुलिस, प्रशासन व सरकार के बीच आपसी समन्वय और नागरिक संगठनों के सहयोग से पिछले साल अक्षय तृतीया पर बाल विवाह में चौंकाने वाली कमी दर्ज की गई। इससे साबित होता है कि कानूनी सख्ती, प्रशासनिक समन्वय व नागरिक समाज का सहयोग हो और बाल विवाह के खात्मे की प्रतिबद्धता हो तो इसे रोका जाना संभव है। इसके नतीजे अब जमीन पर दिख रहे हैं। सेंटर फॉर लीगल एक्शन एंड बिहैवियरल चेंज फॉर चिल्ड्रेन की एक हालिया रिपोर्ट टिपिंग प्वॉइंट टू जीरो एविडेंस टूवार्ड्स ए चाइल्ड मैरिज फ्री इंडिया के अनुसार राजस्थान में, पिछले तीन सालों में लड़कियों के बाल विवाह में 66प्रतिशत और लड़कों के बाल विवाह में 67प्रतिशत की कमी आई है। न्यायिक फैसलों ने बाल विवाह के खिलाफ लड़ाई को धार दी है, सफलता का श्रेय राजस्थान सरकार के प्रयासों को जाता है।

पंजीकरण अनिवार्य :

सरकार ने विवाह पंजीकरण अनिवार्य करने, शादी के निमंत्रण पत्र पर दूल्हा-दुल्हन की उम्र लिखने व सामूहिक विवाह समारोहों में भाग लेने से पहले उम्र के सत्यापन जैसे कारगर कदमों के साथ ही स्थानीय शासन में बाल विवाह की रोकथाम को शामिल करने और गांव स्तर पर बाल संरक्षण समितियों के गठन जैसी बहु-आयामी रणनीति अपनाई। जागरूकता अभियानों का असर भी दिख रहा है। नागरिक समाज संगठनों के प्रयासों से लड़कियां अब खुद अपना बाल विवाह रुकवाने के लिए आगे आ रही हैं। यहां तक कि बाल विवाह की पीड़ित लड़कियां अपना विवाह शून्य करने यानी विवाह को खारिज करने के लिए अदालत का रुख कर रही हैं।

अदालती निषेधाज्ञा :

नागरिक संगठनों और बाल संरक्षण एजेंसियों की मदद से बाल विवाहों की रोकथाम के लिए अदालती निषेधाज्ञा उपाय भी कारगर साबित हो रहे हैं। निश्चित रूप से सरकार, न्यायपालिका और नागरिक संगठनों के प्रयासों के नतीजे उत्साहजनक दिख रहे हैं, लेकिन चुनौतियां भी गंभीर हैं। इस नवाचारी प्रयास को गति देने की जरूरत है, ताकि सतत विकास लक्ष्यों की प्रप्ति के लिए 2030 तक राजस्थान व पूरे भारत को बाल विवाह मुक्त बनाया जा सके। इन्हें सरकारी योजनाओं से जोड़ने की विशेष जरूरत है। राजस्थान सरकार ऐसी कई योजनाएं चला रही हैं। यदि पढ़ाई छोड़ने वाली सभी लड़कियों का दोबारा स्कूलों में दाखिला करा दिया जाए और उन्हें सरकारी योजनाओं व छात्रवृत्तियों से जोड़ दिया जाए, तो बाल विवाह के खात्मे का मुश्किल दिखने वाला लक्ष्य भी 2030 तक की तय समयसीमा में हासिल किया जा सकता है।

-नानूलाल प्रजापति
उपनिदेशक राजस्थान महिला कल्याण मंडल, अजमेर
(यह लेखक के अपने विचार हैं) 

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