मानसिक शांति को प्रभावित करती सोशल डंपिंग
इमोशनल डंपिंग बड़ी समस्या
आज अपनी समस्याओं का बोझ दूसरे पर लादने का दौर चल निकला है।
आज अपनी समस्याओं का बोझ दूसरे पर लादने का दौर चल निकला है। खासतौर से सोशल मीडिया का अधिकतम उपयोग आज इसी काम में होने लगा है। डिजिटलीय भाषा में कहा जाए, तो यह दौर इमोशनल डंपिंग का चल निकला है। कहने को तो यह कहा जाता है कि यदि आप किसी परेशानी में हो तो मन को हल्का करने के लिए अपनी समस्या को किसी संगी साथी से साझा कर लें, इससे दो लाभ हैं एक तो तनाव से तात्कालीक मुक्ति मिल जाती है, दूसरी और हो सकता है कि सामने वाला कोई सकारात्मक हल निकाल दें, पर कहा यह भी जाता है कि अपना दुख- दर्द उसी से साझा करें, जो आपके प्रति गंभीर हो। आपके दुख दर्द को सुनकर सहानुभूति के स्थान पर आपको मजाक का कारण तो नहीं बना दे। इमोशनल डंपिंग इससे थोड़ी अलग स्थिति है और आज यह बड़ी समस्या के रुप में सामने आ रही है। होने यह लगा है कि अपने मन मस्तिष्क का बोझ हम आसानी से दूसरे पर डाल देते हैं।
यह भी नहीं सोचा जाता है कि जिससे आप साझा कर रहे हैं वह इस स्थिति में है भी नहीं कि आपकी समस्या के प्रति कुछ कर सके। हो तो यह रहा है कि हम हमारे किस्से, दुख, तकलीफ या अन्य अच्छे बुरे समाचार मोबाईल, वाट्सएप, इंस्टाग्राम, शार्टस या इसी तरह के किसी अन्य माध्यम से दूसरे पर थोप देते हैं और जाने-अनजाने में दूसरा व्यक्ति इमोशनल डंपिंग का शिकार हो जाता है। आज हालात तेजी से बदलते जा रहे हैं। मनोविज्ञानियों के सामने आज इमोशनल डंपिंग बड़ी समस्या के रुप में सामने आ रहा है। बदलते सामाजिक परिवेश में इमोशनल डंपिंग का दायरा बढ़ता जा रहा है, तो लोग इमोशनल डंपिंग के आसानी से शिकार भी होते जा रहे हैं। हांलाकि हमारे यहां माना जाता रहा है कि कहने से दुख घटता है पर यह भी कहा जाता है कि अपनी दुख तकलीफ उसे सुनाओं जो सुन सके।
दूसरे की मनोस्थिति व परिस्थितियों को समझने की कोशिश ही नहीं होती। यह हालात ज्यादा अच्छे नहीं कहे जा सकते और इसके नकारात्मक परिणाम अधिक आने लगे हैं। इमोशनल डंपिंग में दरअसल जो श्रोता है वह प्रभावित होता है। इमोशनल डंपिंग आज समाज को नकारात्मक दृष्टि से प्रभावित कर रही है। आज संप्रेषण या संवाद के विभिन्न माध्यमों से हम अपनी भड़ास निकाल लेते हैं और सामने वाले की मनोस्थिति को समझने का प्रयास ही नहीं करते। अगला व्यक्ति इस समय किन परिस्थितियों से गुजर रहा है, उसके पास आपकी भड़ास सुनने का समय भी है या नहीं, या आपकी भड़ास का निदान कर सकता है या नहीं आपकी समस्या से जूझने की क्षमता भी है या नहीं। यह अपने आपमें एक समस्या हो जाती है। इमोशनल डंपिंग देखा जाए, तो पूरी तरह से नकारात्मक और एकतरफा तरीका है और यह आज इस कदर हावी हो गया है कि आसानी से आज व्यक्ति इससे दो चार हो रहे हैं।
दरअसल, सामने वाले व्यक्ति को हम आउटलेट समझ कर उसके साथ व्यवहार करते हैं। वह अपने आपको अपराधी जैसा समझने लगता है। एक तरह से सामने वाला व्यक्ति आपकी बात से साझा होना भी चाहता है या नहीं उससे इमोशनल डंपिंग करने वाले को कोई लेना देना नहीं रहता। यह नए जमाने की नई तरह की समस्या बनती जा रही है। सोशियल मीडिया पर जब इस तरह की चीजें साझा की जाती हैं, तो सामने वाले के साथ आपका भावनात्मक संबंध भी नहीं होता, ऐसे में सामने वाला थोड़ा संवेदनशील है तो तनाव से गुजरने लगता है। सोचता है ऐसा कैसे हो गया। क्या कारण रहे। या इसका समाधान तो आसानी से हो सकता है या अन्य किसी तरह से सोच सकता है, पर इस तरह का इमोशनल डंपिंग सामने वाले व्यक्ति पर नकारात्मकता के भाव पैदा करता है और वह कभी कभार तनाव के दौर से गुजरने लगता है। इसीलिए कहा जाता है कि भाई दिल पर मत लो। अब जब दिल पर मत लो की भावना होगी तो फिर आपकी भड़ास के मायने क्या रहेंगे।
इमोशनल डंपिंग का सीधा सीधा मतलब यह है कि अपनी बात डंप करते समय या यों कहें कि साझा करते समय सामने वाले की मनोदशा, सहमति, असहमति, समय, विषय या अन्य से डंप करने वाले को कोई लेना देना नहीं रहता और आज यही हो रहा है। ऐसे में इमोशनल डंपिंग के शिकार लोगों के प्रति मनोविज्ञानी गंभीर चिंतन मनन में लगे हैं। वहीं, इग्नोर करने, दूसरी बातों में ध्यान लगाने, अवसर मिलने पर सामने वाले को असहमति से अवगत कराने और उसे अनावश्यक संवाद के लिए इशारों में मना करने की हिम्मत भी जुटानी होगी, क्योंकि दूसरे की मुसिबत में सहायता, कोई बात साझा करने और इक तरफा भड़ास निकालने में अंतर होता है।
स्वयं तनाव के बोझ से मुक्त होने के लिए दूसरे को तनाव में डालना किसी भी हालात में उचित नहीं माना जा सकता। नहीं तो जिस तेजी से आज इमोशनल डंपिंग का दौर चला है वह आने वाले समय में और भी अधिक गंभीर और समाज के लिए नकारात्मकता फैलाने वाला हो जाएगा।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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