कर्नाटक में मुरझाया कमल का फूल

कर्नाटक में मुरझाया कमल का फूल

लगभग दो वर्ष पूर्व बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री  बनाया। तभी से कहा जाने लगा था कि  बीजेपी का ग्राफ  अब ढलान की ओर जाएगा।

दक्षिण के कर्नाटक राज्य में लगभग दो दशक पूर्व पहली बार विधानसभा के चुनावों  में बीजेपी को इतनी सीटें आई थीं कि उसने राज्य के एक  क्षेत्रीय  दल जनता दल-स के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। उस समय तक यह पार्टी और इसका पूर्व रूप जनसंघ  केवल उत्तर  भारत के राज्यों तक ही सीमित थी। इसलिए जब यहां सरकार बनी तो पार्टी के नेताओं ने कहा कि दक्षिण में कमल खिल गया है। इन नेतओं यह भी कहा कि वह दिन दूर नहीं जब दक्षिण के अन्य राज्यों में भी शीघ्र ही कमल खिलना शुरू हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। दक्षिण में यह दल केवल  कर्नाटक तक ही सीमित रहा। इसकी ताकत यहां घटती बढ़ती रही। एक समय ऐसा भी आया जब इसने राज्यों में अपने ही बलबूते पर सरकार बनाई। इस दौर में इसके  सबसे बड़े नेता येद्दयुरप्पा थे, जिनके नेतृत्व में राज्य में बीजेपी की सरकार चार बार बनी। वे लिंगायत समाज, जो यहां राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से सबसे प्रभावी समुदाय है, से आते हैं तथा राज्य की राजनीति में उनका कद बड़ा रहा है।

हाल के विधानसभा चुनावों में पहला मौका था कि बीजेपी की चुनावी कमान उनके हाथ में नहीं थी। लगभग दो वर्ष पूर्व बीजेपी नेतृत्व ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री  बनाया। तभी से कहा जाने लगा था कि  बीजेपी का ग्राफ  अब ढलान की ओर जाएगा। हालांकि बोम्मई भी लिंगायत समाज से आते हैं, लेकिन समुदाय में उनका दर्जा उतना ऊंचा दर्जा नहीं है जितना  येद्दियुरप्पा का है। पद से हटते वक्त येद्दियुरप्पा ने कहा था कि वे  अब  चुनाव नहीं लड़ेंगे, लेकिन राजनीति  में सक्रिय  रहकर पहले की भांति काम करते रहेंगे। वे पार्टी के लिए काम करते रहे, इसलिए पार्टी ने उन्हें संसदीय बोर्ड का सदस्य बना दिया। राज्य में बीजेपी की ओर से पहला ऐसा मौका था जब चुनाव बिना उनके नेतृत्व के लड़ा गया। राज्य में बीजेपी की अन्य कारणों सहित हार का एक बड़ा कारण यह भी था कि वे सीधे तौर पर चुनाव की रणनीति किए हुए नहीं थे।
हालांकि बोम्मई की छवि एक साफ  नेता की है, लेकिन प्रशासन और पार्टी पर उनकी वह पकड़ नहीं थी, जो येद्दियुरप्पा की थी। पिछले दो सालों में एक के बाद एक  भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए, जिससे सरकार की  छवि पर दाग लग गए। इसके बावजूद पार्टी के नेताओं को   भरोसा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तिलस्म से राज्य में पार्टी को जितवाने में सफल रहेंगे। लेकिन राज्य में पार्टी की सरकार के खिलाफ  हवा इतनी बिगड़ चुकी थी कि मोदी भी राज्य में उनकी नैया पार नहीं लगा सके।

कांग्रेस ने  भ्रष्टाचार को ही  चुनावी  मुद्दा बनाया, जिसके सामने बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग धरी की धरी रह गई। चुनावों की घोषणा से कुछ दिन पूर्व ही  बीजेपी सरकार ने राज्य के दो बड़े और प्रभावी समुदायों, लिंगायत और वोक्कालिंगा को खुश करने के लिए आरक्षण में उनके प्रतिनिधित्व को 2.2 प्रतिशत बढ़ा दिया। इस आरक्षण को बढ़ाने से   मुस्लिम समुदाय के 4 प्रतिशत आरक्षण को किसी अन्य श्रेणी में डाल दिया गया,पर  इससे न तो बीजेपी के लिंगायत और न ही  वोक्कालिंगा  समुदाय के मतों में इजाफा हुआ। दूसरी और मुस्लिम समुदाय ने खुलकर कांग्रेस का साथ दिया। कांग्रेस ने वायदा किया था कि अगर वह सत्ता में आई तो  बीजेपी सरकार के इस कदम को वापस ले लेगी। इसके अलवा कांग्रेस पार्टी ने रेवड़ियां बांटने के वायदे में भी कमी नहीं  रखी। इसने पांच बड़ी गारंटियां मतदाताओं  को दीं, जिनमें 200 यूनिट मुफ्त बिजली भी शामिल हैं। इसमें कोई शक नहीं कि लगभग चार वर्ष पूर्व राज्य पार्टी का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद डीके शिवकुमार ने पार्टी  संगठन को मजबूत बनाने में कोई कमी नहीं रखी। पार्टी में गुटबंदी काफी हद तक घटी। पार्टी संगठन ने चुनावी तैयारियां बहुत पहले से ही शुरू कर दी थीं। ऐसा पहली बार हुआ कि  पार्टी ने  कुल 224 सीटों में 160  सीटों के उम्मीदवार के नाम चुनाव की तिथियां घोषित होने से पूर्व ही सार्वजनिक कर दिए। इसका श्रेय काफी हद तक  पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष  मल्लिकार्जुन खडगे को भी  जाता है, जो खुद कर्नाटक से आते हैं तथा लम्बे समय से राज्य की राजनीति में रहे हैं।

चूंकि इस चुनाव को जितवाने का बड़ा श्रेय  शिवकुमार को  जाता है। इसलिए उन्हें भरोसा था कि जीत के बाद  राज्य की सरकार के कमान उन्हें ही सौंपी जाएगी। लेकिन पार्टी ने सिद्धारमैया को  इस पद के लिए चुना। वे 2013 से 2015 तक राज्य में कांग्रेस शासनकाल में मुख्यमंत्री रहे हैं। बीजेपी शासनकाल में वे विपक्ष के नेता भी थे।

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