नई तकनीकों से कार्डियक सर्जरी और आसान, नई जनरेशन के स्टेंट्स से एंजियोप्लास्टी का बदल रहा ट्रेंड
नई जांच तकनीकों और एंजियोप्लास्टी में काम आने वाले नई जनरेशन के स्टेंट्स से एंजियोप्लास्टी का ट्रेंड बदल रहा है और जटिल केस भी आसानी से हो रहे हैं। शहर के सीनियर कार्डियोलोजिस्ट डॉ. जितेंद्र मक्कड़ ने बताया कि इंट्रावस्कुलर अल्ट्रासाउंड (आइवीस) तकनीक से आर्टरी की सिकुड़न, ब्लॉकेज की लंबाई और कठोरता, आर्टरी में जमे कैल्शियम के बारे में पता चलता है
जयपुर। नई जांच तकनीकों और एंजियोप्लास्टी में काम आने वाले नई जनरेशन के स्टेंट्स से एंजियोप्लास्टी का ट्रेंड बदल रहा है और जटिल केस भी आसानी से हो रहे हैं। शहर के सीनियर कार्डियोलोजिस्ट डॉ. जितेंद्र मक्कड़ ने बताया कि इंट्रावस्कुलर अल्ट्रासाउंड (आइवीस) तकनीक से आर्टरी की सिकुड़न, ब्लॉकेज की लंबाई और कठोरता, आर्टरी में जमे कैल्शियम के बारे में पता चलता है। यही नहीं मरीज की स्टेंटिंग के बाद उसका इंप्लांटेशन सही हुआ है या नहीं, यह भी जाना जा सकता है।
ओसीटी बताएगी, स्टेंट सही काम कर रहा या नहीं
डॉ. मक्कड़ ने बताया कि ऑप्टीकल कोहैरेंस टोमोग्राफी (ओसीटी) ऑप्टीकल इमेजिंग तकनीक है जो इंफ्रारेड लाइट का इस्तेमाल कर रक्त वाहिकाओं के अंदर का दृश्य देखने और प्लाक के प्रकार व फैलाव को जानने में मदद करता है। साथ ही इससे स्टेंट के साइज, फैलाव और उसके सही खुलने की सही रिपोर्ट भी देता है।
रोटा तकनीक, स्कोरिंग बैलून व शॉक वेव लिथोट्रिप्सी
इन तकनीकों से कठोर से कठोर कैल्शियम वाले ब्लॉकेज में भी स्टेंट लगाया जा सकता है। इंट्रा वैस्कुलर अल्ट्रासाउंड एवं ओसीटी से यह जानने में मदद मिलती है कि इनमें से कौन सी तकनीक इस्तेमाल की जाए।
भारतीय बायोरिसोर्बेबल स्टेंट भी चलन में
डॉ. मक्कड़ के अनुसार एंजियोप्लास्टी के काफी समय बाद मरीज को उसी आर्टरी में फिर से ब्लॉकेज हो जाए तो ऐसी स्थिति में पीएलएल से बने बायोरिसोर्बेबल स्टेंट के इस्तेमाल का प्रचलन बढ़ने लगा है। ये स्टेंट आर्टरी में इंप्लांट होने के एक से डेढ़ साल बाद शरीर में ही घुल जाएगा और आर्टरी को वापस उसकी शेप में ले आएगा।
ड्रग एलुटिंग बैलून
कुछ विशेष परिस्थितियों में स्टेंट का उपयोग न हो पाए या स्टेंट के अंदर ब्लॉक आ जाए, वहां ड्रग एलुटिंग बैलून का प्रयोग काफी प्रभावी रहता है।
डिस्टल रेडियल एंजियोप्लास्टी
कार्डियक इंटरवेंशन में अब एक्सपर्ट दाएं हाथ के अंगूठे के पीछे की बड़ी नस से भी कैथेटर का इस्तेमाल कर हार्ट तक अपनी पहुंच सुगम बना रहे हैं। इस जगह से होने वाले प्रोसीजर को डिस्टल रेडियल एंजियोप्लास्टी कहते हैं। इसमें आर्टरी के नुकसान होने से लेकर प्रोसीजर में लगने वाला समय भी कम होता है।
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