
केरल: बिखरता विपक्षी मोर्चा इंडिया
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर भले ही वाम दल इंडिया मोर्चे का हिस्सा बने रहे, लेकिन राज्य में ऐसा होना असंभव सा ही है।
दक्षिण के केरल राज्य में बीते कई वर्षों से कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त लोकतान्त्रिक मोर्चा और मार्क्सवादी कम्युनिस्टनीत वाम लोकतान्त्रिक मोर्चा बारी-बारी से सत्ता में आते रहे हैं। लेकिन पिछले विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चे ने इस क्रम को तोड़ दिया और लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में कामयाब रहा। राज्य की राजनीति का पूरी तरह ध्रुवीकरण हो चुका है। बीजेपी सहित कोई भी अन्य दल राज्य में अपनी पैठ बनाने में सफल नहीं हो सका है। राष्टÑीय स्तर पर जहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी वाम पार्टियां कांग्रेस के नेतृत्व वाले नए विपक्षी मोर्चे इंडिया के साथ खड़ी हो इसके विपरीत इस राज्य में दोनों मोर्चे एक दूसरे के आमने-सामने डटे हुए हैं।
कुछ माह पूर्व राज्य में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष तथा राज्य के मुख्यमंत्री रहे ओमान चंडी का निधन हो गया था। वे आधी से भी अधिक सदी तक पुथम्पल्ली से राज्य विधानसभा के सदस्य रहे थे। उनके निधन के बाद यहां हुए उप चुनाव में संयुक्त लोकतान्त्रिक मोर्चे और वाम मोर्चे के बीच कड़ी टक्कर थी। कांग्रेस पार्टी ने यहां ओमान चंडी के बेटे चंडी ओमान को अपना उम्मीदवार बनाया था। चूंकि राष्टÑीय स्तर पर दोनों मोर्चे विपक्षी मोर्चे इंडिया में एक साथ है इसलिए कहा गया कि वे यहां एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं यहां वे विपक्षी की तरह नहीं बस दोस्तना रूप से चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन चुनाव प्रचार में वे एक दूसरे पर जिस प्रकार से हमले बोल रहे उसको देखा कर ऐसा लगता था कि उनका दूर-दूर तक आपस में कोई वास्ता नहीं है। वाम मोर्चा हर कीमत पर यह चुनाव जीतकर यह सिद्ध करने में लगा था कि राज्य में उनकी सरकार बहुत लोकप्रिय है। वे यह चुनाव जीत कर यह जताना चाहते हैं कि इस लोकप्रियता के चलते ही वे यह चुनाव जीतेगें है। लड़ाई कांटे की थी। आखिर में कांग्रेस पार्टी चुनाव जीतने में सफर रही। इसके उम्मीदवार चंडी ओमान को अपने पिता ओमान चंडी से भी अधिक मतों से जीत मिली। वाम मोर्चे के नेताओं का कहना था कि चंडी ओमान को यहां सहानुभूति के चलते जीत मिली। पर इसके साथ सच्चाई यह भी है कि यह इलाका शुरू से ही कांग्रेस पार्टी का गढ़ रहा है, जिसके चलते ओमान चंडी 53 साल से यहां जीतते आ रहे थे।
इससे पहले इंडिया के ये दोनों घटक त्रिक्काकक्र विधानसभा उपचुनाव एक दूसरे के सामने थे। अंत में कांग्रेस पार्टी वाम मोर्चे के उम्मीदवार को हराने में सफल रही थी। वहां भी दोनों मोर्चो के बीच सीधी और कड़ी टक्कर थी।
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर भले ही वाम दल इंडिया मोर्चे का हिस्सा बने रहे, लेकिन राज्य में ऐसा होना असंभव सा ही है। 2019 के लोकसभा चुनावों में यहां कांग्रेस पार्टी का वाम मोर्चे से सीधा मुकाबला था। तब कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के अपने पुराने चुनाव क्षेत्र के साथ-साथ यहां की वायनाड लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था। वे उत्तर प्रदेश की सीट तो हार गए लेकिन यहां से जीतने में सफल रहे थे। वायनाड एक मुस्लिम बहुल इलाका है तथा मुस्लिम लीग ने राहुल गंध का समर्थन किया था। उस समय भी राज्य में वाम मोर्चे की सरकार थी। ऐसा लग रहा था कि राज्य की सभी बीस सीटों पर कांग्रेस के लोकतान्त्रिक मोर्चे और वाम मोर्चे में कड़ी टक्कर होगी। लेकिन जब चुनाव परिणाम आए, जो सभी को चौंकाने वाले थे। कांग्रेस 20 में से 19 सीटें जीतने में सफल रही। इन परिणामों के चलते कांग्रेस को यह विश्वास हो गया था कि कुछ समय बाद यहां होने वाले विधानसभा चुनावों में वह सत्ता में जरूर लौटेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पार्टी की हार का मुख्य कारण पार्टी के भीतर की गुटबंदी को बताया गया।
इंडिया के घटक भले ही देश की सभी सीटों में सही बंटवारा करने में लगे है लेकिन इस राज्य में इंडिया के इन दोनों घटकों में सीटों के बंटवारे को लेकर कोई सहमति बनती नजर नहीं आती। कांग्रेस परन्तु पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों के आधार पर राज्य की सभी 20 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का दावा करेगी। दूसरी ओर वाम मोर्चा एक सीट भी कांग्रेस को देने को तैयार नहीं होगा। उत्तर भारत सहित देश के कई अन्य राज्यों में इंडिया के सभी घटकों में भले ही कोई समझौता हो जाए लेकिन दक्षिण के इस राज्य में ऐसा दूर-दूर तक होता नहीं लगता।
-लोकपाल सेठी
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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