फेल होने के डर से ही आत्महत्या कर रहे छात्र, ओलंपिक जैसी प्रतियोगिताओं में चूकने पर भी जिंदगी में हार नहीं मानते खिलाड़ी

कहावत भी है कि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है

फेल होने के डर से ही आत्महत्या कर रहे छात्र, ओलंपिक जैसी प्रतियोगिताओं में चूकने पर भी जिंदगी में हार नहीं मानते खिलाड़ी

छात्रों में बढ़ती निराशा की प्रवृति को रोकने के लिए स्कूलों में अनिवार्य हो खेल

जयपुर। उड़न पारी पीटी उषा हो या मिल्खा सिंह, श्रीराम सिंह और दर्जनों भारतीय खिलाड़ी, ओलंपिक और दीगर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कई बार मामूली अंतर से पदक से चूक गए लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। हर चुनौती का सामना किया, हर परीक्षा से गुजरे मगर निराशा में गलत कदम नहीं उठाया। इसके विपरीत देश का छात्र वर्ग परीक्षा में असफलता तो दूर फेल होने के डर से ही आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है।

ऐसे ज्यादा मामले राजस्थान के ही कोटा जिले से आ रहे हैं, जो देश में शिक्षा का बड़ा केन्द्र बना है। परीक्षा शिक्षा जगत में हो या खेल के मैदान पर, प्रतिस्पर्धा हर स्तर पर है। एक छात्र से तो उसके पेरेंट्स और रिश्तेदारों की ही उम्मीदें जुड़ी रहती हैं, वहीं खिलाड़ी जब हजारों दर्शकों के बीच मैदान पर उतरता है तो लाखों-करोड़ों लोगों की उम्मीदों का भार लेकर चलता है। खिलाड़ी हार कर भी हार नहीं मानता। कभी सुना नहीं कि एक खिलाड़ी ने हार से निराश होकर अपने आपको समाप्त करने जैसा कदम उठाया हो। वहीं छात्र असफलता के भय से ही मानसिक तनाव और डिप्रेशन का शिकार बन रहे हैं।

इन खिलाड़ियों से सीख लें छात्र
राजस्थान का पैरा एथलीट सुन्दर सिंह 2018 के रियो ओलंपिक खेलों में नाकामी के बाद डिप्रेशन का शिकार हुआ। सुन्दर रियो ओलंपिक की भालाफेंक स्पर्धा में मात्र दो मिनट की देरी की वजह से हिस्सा नहीं ले सका। उसे डिस्क्वालीफाई कर दिया गया। अच्छी तैयारी के साथ ओलंपिक में पहुंचे खिलाड़ी के लिए यह  बड़ा झटका था लेकिन खेल भावना और कोच महावीर सेनी के मोटिवेशन से सुन्दर फिर मैदान पर उतरा और लंदन वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड जीतकर लाया। 

टोक्यो पैरालंपिक के गोल्ड मेडलिस्ट बैडमिंटन खिलाड़ी कृष्णा नागर के लिए हाल ही पेरिस में मिली नाकामी बड़े सदमे से कम नहीं रही। वर्ल्ड चैंपियन के रूप में पेरिस खेलों में पहुंचे कृष्णा देश के लिए पदक नहीं जीत पाने से बेहद दुखी नजर आए लेकिन वो बाकई एक खिलाड़ी हैं। वह हार मानकर बैठने वाले नहीं हैं और यही जज्बा उन्हें फिर से मैदान पर ले आया। कोच यादवेन्द्र सिंह के साथ कृष्णा नागर अब फिर से अगले मुकाबले की तैयारी में जुटे हैं।

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छात्रों में हों खिलाड़ी जैसे गुण
खेलों से जुड़े लोग हों या शिक्षा जगत से या समाज का अन्य तबकाए हर कोई आज महसूस कर रहा है कि खेलों को शिक्षा में अनिवार्य रूप से लागू किया जाए। स्कूली जीवन में हर विद्यार्थी के लिए खेलना भी अनिवार्य किया जाए। इससे बच्चों में एक खिलाड़ी जैसी भावना उत्पन्न होगी। बच्चों में हार से निराश नहीं होने की भावनाए जीवन में धैर्य और आत्मविश्वास बनाए रखने जैसे गुणए हताश होने की जगह अगली चुनौती के लिए नये सिरे से तैयारी रहने का ज’बा जैसे एक खिलाड़ी के गुण बचपन से ही पनपेंगे और युवा पीढ़ी तनाव और डिप्रेशन जैसी बीमारियों से दूर रहेगी।

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विशेषज्ञों की राय: शिक्षा के साथ खेलों को अनिवार्य बनाया जाए
मौजूदा दौर में सामाजिक प्रतिष्ठा और अच्छा पद हासिल करने के लिए पढ़ाई पर ध्यान देना जरूरी है लेकिन परिवार और समाज की उम्मीदों के भार तले बच्चे इस कदर पढ़ाई के दबाव में हैं कि अन्य गतिविधियों से पूरी तरह कट गए हैं। जब उनके सपने पूरे नहीं होते तो तनाव और डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में युवा आत्महत्या जैसा कदम भी उठा लेते हैं। शिक्षा के साथ खेलों को अनिवार्य बनाया जाए। बच्चे खेलेंगे तो बचपन से ही मानसिक परिपक्वता, टीम भावना और हर परिस्थिति में संतुलन बनाने जैसे गुण उनमें आएंगे। 
-रामावतार सिंह जाखड़, सचिव, राजस्थान ओलंपिक संघ

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कहावत भी है कि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क रहता है। एक खिलाड़ी का शारीरिक और मानसिक स्तर आम युवा की तुलना में अधिक मजबूत और संतुलित रहता है। खिलाड़ी में चुनौतियों को स्वीकार करने और हार के बाद नया लक्ष्य तय कर उसे हासिल करने की संघर्ष क्षमता एक आम युवा से अधिक रहती है। छात्रों को भी असफलता खिलाड़ी की तरह निराश होकर बैठने की जगह नई चुनौती का मुकाबला करना चाहिए। छात्रों को ये सीख छोटी क्लास से ही मिले। 
-श्यामवीरसिंह, पूर्व खेल अधिकारी, राजस्थान खेल परिषद

सरकार फिट राजस्थान और हिट राजस्थान की बात तो करती है लेकिन आज बच्चों को न तो पढ़ाई से फुर्सत है और न ही खेलने की जगह। बस्ते का बोझ जो प्राइमरी से शुरू होता है वो उच्च शिक्षा तक दिमाग पर बोझ बन जाता है। हम चर्चा तो करते हैं कि शिक्षा के साथ बच्चों को खेल भी जरूरी हैं।  अभिभावक बच्चों को खिलाना भी चाहें तो हर किसी के लिए यह संभव नहीं है। छोटे बच्चों को कॉलोनी से दूर भेजना संभव नहीं और कॉलोनी में खेल के मैदान नहीं रहे। कहीं पार्कों में मंदिर बना दिए तो कहीं बड़े-बुजुर्ग बच्चों को मैदान से बाहर कर देते हैं। 
-अजय जोशी, अभिभावक

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