आदिवासियों को हक से किया जा रहा है बेदखल : कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर साधा निशाना, कहा- आदिवासियों के हकों की रक्षा को लेकर चुप्पी साधे हुए है सरकार

बुधवार को उच्चतम न्यायायल में होनी है महत्वपूर्ण सुनवाई

आदिवासियों को हक से किया जा रहा है बेदखल : कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर साधा निशाना, कहा- आदिवासियों के हकों की रक्षा को लेकर चुप्पी साधे हुए है सरकार

कांग्रेस ने कहा कि आदिवासियों को जल जंगल और जमीन के अधिकारों से वंचित किया जा रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार आदिवासियों के हकों की रक्षा को लेकर चुप्पी साधे हुए है।

नई दिल्ली। कांग्रेस ने कहा कि आदिवासियों को जल जंगल और जमीन के अधिकारों से वंचित किया जा रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार आदिवासियों के हकों की रक्षा को लेकर चुप्पी साधे हुए है और वनवासियों के अधिकारों को चुनौती दी जा रही है। जिस पर बुधवार को उच्चतम न्यायायल में महत्वपूर्ण सुनवाई होनी है।

आदिवासी कांग्रेस के प्रमुख डॉ विक्रांत भूटिया ने मंगलवार को यहां पार्टी मुख्यालय में संवाददाता सम्मेलन कहा कि आदिवासियों के साथ न्याय नहीं हो रहा है और पूंजीपतियों के इशारे पर आदिवासियों को उनके हकों से वंचित किया जा रहा है। उनका कहना है कि बुधवार (दो अप्रैल) को वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) की याचिका पर आदिवासियों बेदखल करने संबंधी एक याचिका पर सुनवाई होनी है, जिसके आधार पर देश के 17 लाख से अधिक आदिवासियों के भविष्य, एफआरए की वैधता, बेदखली पर रोक और ग्राम सभाओं के अधिकारों पर उच्चतम न्यायालय की निर्णायक सुनवाई होनी है।

उन्होंने कहा कि “ 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में एक जरूरी मुद्दे पर सुनवाई है। यह सिर्फ सुनवाई नहीं, देश के 17 लाख आदिवासी परिवारों के भविष्य का सवाल है, उनकी संस्कृति और पहचान का सवाल है। साल 2006 में कांग्रेस वन अधिकार अधिनियम नाम से एक ऐतिहासिक कानून लेकर आई थी। इस कानून में आदिवासियों को न्याय देते हुए वनों पर आदिवासियों का अधिकार घोषित किया गया था। इस कानून में ग्राम सभाओं को अधिकार था कि वे प्रस्ताव कर वन पट्टों में रह रहे आदिवासियों को उन पट्टों का अधिकार दें। वर्ष 2008 में कुछ स्वयंसेवी संगठनों और कुछ सेवानिवृत अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की जिसमें कहा गया कि वन अधिकार अधिनियम पूरी तरह से गलत है और वनों पर आदिवासियों या वहां रह रहे लोगों का कोई अधिकार नहीं है। 2015-16 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि ऐसे सभी मामलों को जोड़कर, उनकी एक साथ सुनवाई की जाए। फिर 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश दिया कि आदिवासियों और वनों में रहने वाले लोगों को जंगल से बेदखल किया जाए। देश में इसके खिलाफ मुहिम छिड़ी और सभी ने अपनी आवाज उठाई। तब 28 फरवरी 2019 को कोर्ट ने बेदखली के इस आदेश पर स्टे लगा दिया, लेकिन 2020 में वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नाम की एक संस्था ने याचिका लगाकर कहा कि एफआरआई के नियमों और सामुदायिक अधिकारों को पूरी तरह से खारिज कर देना चाहिए। कल 2 अप्रैल को एफआरआई की वैधता, बेदखली पर रोक और ग्राम सभाओं के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट की निर्णायक सुनवाई होनी है।”

कांग्रेस नेता ने कहा कि “इस मामले में जिन लोगों ने याचिका लगाई है, वह कॉर्पोरेट के हाथों में खेल रहे हैं। वे ग्राम सभाओं और उसे मिलने वाले अधिकारों को खत्म करने की पैरवी करते हैं। ताकि जंगल पर आदिवासियों का नहीं, कॉर्पोरेट और पूंजीपतियों का एकाधिकार हो जाए। यह न्याय दिलाने और संविधान बचाने की बहुत बड़ी लड़ाई है। एफआरए में तीन सबसे महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिन्हें पात्रता भी बोलते हैं। अगर ग्राम सभाएं यह पारित कर दें कि ये लोग या समुदाय गांव में रह रहे हैं, तो उनको तत्काल पट्टा दिया जाए, जो आज तक नहीं मिला है। वन विभाग के अनुसार जब भी कोई बहुत लंबे समय से वनों में रहता है, तो उनकी रसीदें काटी जाती हैं। रसीदें यह प्रमाणित करती हैं कि वह व्यक्ति कितने साल से वहां रह रहा है। अगर कोई व्यक्ति 2005 के पहले से जंगल में रह रहा है, तो एफआरए में उसको वहां पट्टे का अधिकार मिलता है, जो उसे नहीं दिया गया है। जो गैर-आदिवासी तीन पीढ़ी से जंगलों में रह रहे हैं, उन्हें भी अधिकार मिलना चाहिए था, वह भी नहीं दिया गया। जब तक यह निर्णय नहीं हो जाता है कि पट्टा किसका है, तब तक सरकार या किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि लंबे समय से वहां रहने वालों को बेदखल कर सके।”

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आदिवासी कांग्रेस नेता ने कहा कि “ये लड़ाई सिर्फ जमीन की नहीं है बल्कि आदिवासियों के अस्तित्व की है। दुख की बात है कि आज आदिवासियों को अतिक्रमणकारी कहा जा रहा है, जबकि असलियत में वही जंगलों के रक्षक हैं। वन अधिकार कानून को ख़त्म करने की बात लोकतंत्र पर हमला है। हम ये लड़ाई सदियों से लड़ते आए हैं और हम जल-जंगल-जमीन के असली मालिक हैं। हमें अगर हटाया गया तो ये अन्याय होगा। जिन लोगों ने इस मामले में याचिका लगाई है, वो सैटेलाइट इमेजनिरी की बात कर रहे हैं, यानी सैटेलाइट के जरिए निर्धारित किया जाए कि कौन वहां रहे हैं और कौन नहीं।”

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उन्होंने कहा कि आदिवासियों के हितों की बात जमीन पर होनी चाहिए और उनकी समस्याओं को मौके पर आकर ही देखा जाना चाहिए। उनकी समस्याओं को सेटलाइट इमेज के आधार पर नहीं समझा जा सकता है। उन्होंने कहा “हमारा मानना है कि इस मामले में जमीन पर जाकर वेरिफिकेशन होना चाहिए और ये काम ग्राम सभाएं करेंगी। ऐसे में सवाल है कि आखिर इस मामले में सरकार चुप क्यों है। क्या सरकार अपने कॉर्पोरेट मित्रों के दबाव से डर गई है। इस मामले में सरकार मजबूती के साथ लड़ाई क्यों नहीं लड़ रही और वह जंगल की नीलामी के मामले पर मौन क्यों है।”

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भूरिया ने कहा कि “हमारा मानना है कि कोर्ट को वन अधिकार से जुड़े मामले पर रोक जारी रखनी चाहिए। जितने भी दावे निरस्त हुए हैं, उसका दोबारा से निरीक्षण होना चाहिए और इसके लिए ग्राम सभाओं को ताकत देनी चाहिए। केंद्र सरकार वन अधिकार अधिनियम की रक्षा कर वन विभाग की मनमानी को पूरी तरह से खत्म करने का काम करे। सामूहिक अधिकार, ग्राम सभा और जंगलों में आदिवासियों के हक के साथ छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। हम चेतावनी देते हैं कि जंगल को बिकने नहीं देंगे। अगर किसी भी तरह का नियम पारित होता है तो हम सड़क पर आकर पूरी ताकत से विरोध प्रदर्शन करेंगे।”

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