आंतरिक विस्थापन की भयावह तस्वीर
व्यक्ति किसी संकट के कारण अपने घर को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाता
आंतरिक विस्थापन लाखों लोगों के जीवन को हर साल प्रभावित कर रहा है।
आंतरिक विस्थापन लाखों लोगों के जीवन को हर साल प्रभावित कर रहा है। यह वह स्थिति होती है, जब कोई व्यक्ति या परिवार हिंसा, संघर्ष, प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी संकट के कारण अपने घर को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाता है, लेकिन वे अपने ही देश की सीमाओं के भीतर रहते हैं। वे शरणार्थी नहीं कहलाते, क्योंकि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय सीमा पार नहीं की होती, लेकिन उनके सामने समस्याएं किसी शरणार्थी से कम नहीं होतीं। आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र द्वारा जारी की गई वैश्विक आंतरिक विस्थापन रिपोर्ट 2025 के आंकड़े बताते हैं कि यह संकट किस हद तक बढ़ चुका है और इसका प्रभाव कितना व्यापक और गहरा है।
वर्ष 2024 में पूरी दुनिया में कुल 66 मिलियन आंतरिक विस्थापन दर्ज किए गए, जो अब तक की सबसे अधिक संख्या है। इनमें से लगभग 45.8 मिलियन विस्थापन केवल प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुए, यानी तीन में से दो से अधिक लोग जलवायु से जुड़ी घटनाओं के कारण अपने घरों से बेघर हुए। यह आंकड़ा पिछले दशक के औसत से दोगुना है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इन आपदा-जनित विस्थापनों में से 99.5 प्रतिशत घटनाएं मौसम से जुड़ी थीं, जैसे बाढ़, तूफान, जंगल की आग, सूखा और भूस्खलन। यह साफ संकेत देता है कि जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर की आशंका नहीं रह गया है, बल्कि वह आज का संकट बन गया है, जिससे सबसे अधिक गरीब और कमजोर लोग प्रभावित हो रहे हैं। अकेले अमेरिका में ही 11 मिलियन लोग 2024 में आपदाओं की वजह से विस्थापित हुए, जो दुनिया भर के कुल आपदा विस्थापनों का लगभग एक चौथाई है। जंगल की आग और तूफानों के कारण वहां सबसे ज्यादा लोग बेघर हुए। यह उदाहरण दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन की मार केवल विकासशील या गरीब देशों पर ही नहीं पड़ रही, बल्कि विकसित देश भी इसके सामने असहाय हैं। संघर्ष और हिंसा भी आंतरिक विस्थापन का एक बड़ा कारण हैं।
वर्ष 2024 में 20.1 मिलियन लोग संघर्षों और हिंसा की वजह से अपने घरों से विस्थापित हुए। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ऐसे तीन-चौथाई लोग उन देशों में रह रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। यानी जिन देशों में पहले से ही युद्ध, गृह संघर्ष, जातीय हिंसा या राजनीतिक अस्थिरता है, वहीं जलवायु से जुड़ी आपदाएं और भी कहर ढा रही हैं। इस दोहरे संकट की वजह से विस्थापितों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और इन लोगों के लिए पुनर्वास और सुरक्षा प्रदान करना सरकारों के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण हो रहा है। भारत की स्थिति भी इस रिपोर्ट में विशेष रूप से सामने आई है। भारत में 2024 में कुल 5.4 मिलियन लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण आंतरिक रूप से विस्थापित हुए, जबकि संघर्ष के कारण 1,700 लोग अपने घरों को छोड़ने को मजबूर हुए। बाढ़, चक्रवात और मानसून की अधिकता इन विस्थापनों के मुख्य कारण थे। विशेष रूप से असम राज्य में स्थिति बहुत गंभीर रही।
एक दशक में पहली बार इतनी बड़ी बाढ़ आई कि 2.5 मिलियन लोग विस्थापित हो गए। यह केवल मौसम की मार नहीं थी, बल्कि इसके पीछे वर्षों की उपेक्षा और कमजोर प्रबंधन था। वनों की कटाई, तटबंधों का टूटना, नदियों के आसपास अनियोजित विकास और जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों ने इस संकट को और गहरा कर दिया। विस्थापनों का प्रभाव केवल भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करता है। विस्थापित व्यक्ति अपना घर, जमीन, आजीविका, सामाजिक पहचान और मनोवैज्ञानिक स्थिरता सब कुछ खो देता है। विस्थापन के बाद उन्हें किसी अस्थायी शिविर या राहत केंद्र में रहना पड़ता है, जहां मूलभूत सुविधाओं की कमी होती है।
आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो यह संकट सरकारों पर भारी वित्तीय बोझ डालता है। राहत, पुनर्वास और पुनर्निर्माण में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, लेकिन अक्सर यह राशि जरूरत से बहुत कम होती है। दूसरी ओर, विस्थापितों का उत्पादन और श्रम क्षमता भी प्रभावित होती है, जिससे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचता है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोग जमीन से जुड़े होते हैं, विस्थापन उनके जीवन को पूरी तरह उलट देता है। राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर यह संकट शासन की तैयारी, क्षमता और संवेदनशीलता की असली परीक्षा है।
आपदा के बाद केवल तात्कालिक राहत देना काफी नहीं होता, बल्कि दीर्घकालिक पुनर्वास, रोजगार की व्यवस्था, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं, सभी पहलुओं पर कार्य करना होता है। इसके लिए स्पष्ट नीतियों, समर्पित बजट और जिम्मेदार प्रशासन की आवश्यकता होती है, लेकिन अक्सर देखा गया है कि राहत कार्य अनियोजित, असंगठित और अपारदर्शी होते हैं। विस्थापितों की आवाज अक्सर अनसुनी रह जाती है और उनकी समस्याएं लंबे समय तक अनसुलझी बनी रहती हैं।
- देवेन्द्रराज सुथार
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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