काम और जीवन के संतुलन की नई जरूरत

पुनर्विचार की मांग 

काम और जीवन के संतुलन की नई जरूरत

डिजिटल युग में काम करने के तरीकों में आए तेज बदलावों के कारण भारत में इन दिनों राइट टू डिस्कनेक्ट गंभीर चर्चा का विषय बन गया है।

डिजिटल युग में काम करने के तरीकों में आए तेज बदलावों के कारण भारत में इन दिनों राइट टू डिस्कनेक्ट गंभीर चर्चा का विषय बन गया है। पहले काम का एक निश्चित समय और स्थान हुआ करता था। कार्यालय से निकलते ही व्यक्ति का निजी जीवन शुरू हो जाता था, लेकिन मोबाइल, ई.मेल, व्हाट्सएप और ऑनलाइन मीटिंग्स ने इस सीमा को लगभग समाप्त कर दिया है। अब कर्मचारी से यह अपेक्षा की जाने लगी है कि वह हर समय उपलब्ध रहे। इसी पृष्ठभूमि में राइट टू डिस्कनेक्ट की अवधारणा सामने आई है, जो यह कहती है कि कार्य समय के बाद कर्मचारी को काम से जुड़े कॉल, संदेश या ई-मेल का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। भारत में यह विषय हाल के समय में इसलिए चर्चा में आया है, क्योंकि कार्य संस्कृति तेजी से बदल रही है। वर्क फ्रॉम होम और हाइब्रिड मॉडल के बढ़ने से घर और दफ्तर के बीच की रेखा और धुंधली हो गई है। कई कर्मचारी यह अनुभव कर रहे हैं कि उनसे देर रात, सप्ताहांत या छुट्टियों में भी काम की अपेक्षा की जाती है।

राइट टू डिस्कनेक्ट :

इसका परिणाम यह हुआ है कि कर्मचारी मानसिक रूप से लगातार काम से जुड़े रहते हैं, भले ही वे शारीरिक रूप से कार्यस्थल पर न हों। इस निरंतर दबाव ने थकान, तनाव, नींद की समस्या और मानसिक असंतुलन जैसी परेशानियों को बढ़ा दिया है। इस बहस को और बल तब मिला जब हाल ही में संसद में राइट टू डिस्कनेक्ट से जुड़ा एक विधेयक पेश किया गया। इस प्रस्ताव ने पूरे देश में काम-जीवन संतुलन को लेकर नई बहस छेड़ दी। इस विधेयक का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कर्मचारियों को कार्यालय समय के बाद काम से मानसिक दूरी बनाने का अधिकार मिले और इसके लि, उन्हें किसी प्रकार का नुकसान न हो। यह चर्चा केवल कानूनी दायरे तक सीमित नहीं रही, बल्कि कॉरपोरेट संस्कृति, कर्मचारियों के अधिकार और नियोक्ताओं की जिम्मेदारियों तक फैल गई।

नकारात्मक असर :

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भारत में यह मुद्दा इसलिए भी संवेदनशील है, क्योंकि यहां नौकरी की असुरक्षा एक बड़ी वास्तविकता है। बहुत से कर्मचारी यह जानते हुए भी देर रात कॉल उठाते हैं या छुट्टी के दिन ई-मेल का जवाब देते हैं कि ऐसा न करने पर उनके करियर पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। यह डर उन्हें अपने निजी समय की रक्षा करने से रोकता है। धीरे-धीरे यह स्थिति एक ऐसी आदत में बदल जाती है, जहां व्यक्ति खुद ही अपने विश्राम के अधिकार को छोड़ देता है। यही कारण है कि राइट टू डिस्कनेक्ट को केवल सुविधा नहीं, बल्कि अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है। इस विषय की चर्चा का एक बड़ा कारण कर्मचारियों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बढ़ती चिंता भी है। विशेषज्ञ लगातार यह चेतावनी दे रहे हैं कि बिना विश्राम के लगातार काम करना लंबे समय में व्यक्ति की उत्पादकता को कम कर देता है। थका हुआ और तनावग्रस्त कर्मचारी न तो रचनात्मक ढंग से सोच पाता है और न ही अपने काम में संतुलन बनाए रख पाता है।

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अधिकार देना जरूरी :

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राइट टू डिस्कनेक्ट की बहस को अंतरराष्ट्रीय अनुभवों से भी बल मिला है। कई देशों ने यह महसूस किया है कि कर्मचारियों को काम से अलग होने का स्पष्ट अधिकार देना जरूरी है। वहां यह समझ विकसित हुई है कि काम के बाद विश्राम केवल व्यक्तिगत जरूरत नहीं, बल्कि स्वस्थ कार्य संस्कृति की शर्त है। भारत में भी इसी सोच के आधार पर यह मांग उठ रही है कि आधुनिक श्रम कानूनों को डिजिटल युग के अनुरूप बनाया जाए। मौजूदा कानून उस समय के हैं, जब काम का स्वरूप पूरी तरह अलग था। आज की परिस्थितियों में इन कानूनों की सीमाएं स्पष्ट दिखाई देने लगी हैं। हालांकि इस विषय पर सभी की राय एक जैसी नहीं है। कुछ उद्योगों और नियोक्ताओं का मानना है कि पूरी तरह डिस्कनेक्ट होने का अधिकार कार्य में लचीलापन कम कर सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां वैश्विक स्तर पर काम होता है।

पुनर्विचार की मांग :

इसके जवाब में यह तर्क भी सामने आता है कि अधिकार का मतलब पूर्ण प्रतिबंध नहीं, बल्कि संतुलन है। राइट टू डिस्कनेक्ट का उद्देश्य यह नहीं है कि कर्मचारी कभी अतिरिक्त काम न करें, बल्कि यह है कि अतिरिक्त काम सहमति और उचित मुआवजे के साथ हो, न कि दबाव और डर के कारण। कुल मिलाकर, भारत में राइट टू डिस्कनेक्ट की चर्चा केवल एक कानून या नीति तक सीमित नहीं है। यह बदलते समय में काम, जीवन और तकनीक के रिश्ते पर पुनर्विचार की मांग है। यह सवाल उठाती है कि विकास और उत्पादकता की कीमत कहीं इंसान की सेहत और निजी जीवन तो नहीं बन रही। यदि इस बहस को सही दिशा में आगे बढ़ाया गया और संतुलित नीतियां बनाई गईं, तो यह न केवल कर्मचारियों के जीवन को बेहतर बना सकती है, बल्कि कार्यस्थलों को भी अधिक मानवीय और प्रभावी बना सकती है।

-देवेन्द्रराज सुथार
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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