पंचायत, गहने और महिला स्वतंत्रता का सवाल
संस्कृति और परंपराएं
देहरादून के जौनसार-बावर इलाके में एक ऐसा फैसला हुआ है, जो पूरे देश में बहस का मुद्दा बन गया है।
देहरादून के जौनसार-बावर इलाके में एक ऐसा फैसला हुआ है, जो पूरे देश में बहस का मुद्दा बन गया है। चकराता तहसील के कंदाड़ और इंद्रोली गांवों की पंचायतों ने तय किया है कि शादी-ब्याह या किसी भी सामाजिक समारोह में महिलाएं अब सिर्फ तीन सोने के गहने ही पहन सकेंगी मंगलसूत्र, नाक की बाली और कान के झुमके। और अगर किसी महिला ने इस नियम का उल्लंघन किया तो उस पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा सकता है। यह फैसला सुनकर पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि क्या सचमुच किसी पंचायत को यह अधिकार है कि वह तय करे कि महिलाएं क्या पहनें और क्या नहीं। जौनसार-बावर का इलाका वैसे भी अपनी अनोखी पहचान के लिए जाना जाता है। यमुना और टोंस नदियों के बीच बसा यह जनजातीय क्षेत्र अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपराओं और रीति-रिवाजों के लिए प्रसिद्ध है। यहां के लोग खुद को पांडवों का वंशज मानते हैं और इनकी जीवनशैली अन्य पहाड़ी समुदायों से भिन्न है। यहां कभी बहुपति प्रथा का चलन था, लेकिन आधुनिकता के साथ यहां की कई परंपराएं बदल रही हैं।
बदलाव की एक कड़ी :
गहनों पर यह नया फरमान शायद उसी बदलाव की एक और कड़ी है। पंचायत का तर्क साफ है समाज में बढ़ते दिखावे और सोने की आसमान छूती कीमतों ने आम आदमी के लिए शादी-ब्याह को एक बोझ बना दिया है। कंदाड़ गांव, जिसकी आबादी लगभग 700 है, वहां के ग्रामीणों का मानना है कि कुछ महिलाएं सामाजिक कार्यक्रमों में भारी सोने के गहने पहनकर आती हैं, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं में हीन भावना पैदा होती है। स्थानीय निवासी अतर सिंह चौहान ने कहा कि इस फैसले से गांव में अब कोई तुलना नहीं होगी कि किसने कितने गहने पहने हैं। जब हर किसी के लिए समान नियम हैं, तो शादियां सादगी और समानता के साथ होंगी। यह तर्क सुनने में बेहद तर्कसंगत लगता है। सचमुच, भारतीय समाज में दिखावे की प्रवृत्ति ने शादी-ब्याह को एक प्रतियोगिता का रूप दे दिया है।
मौलिक अधिकार है :
एक परिवार दूसरे से आगे निकलने की कोशिश में अपनी आर्थिक हैसियत से कहीं अधिक खर्च कर देता है। कर्ज लेना, अपनी जमीन-जायदाद गिरवी रखना, यहां तक कि परिवार में कलह और तनाव यह सब इसी दिखावे की देन है। सोने के गहने तो इस प्रतिस्पर्धा का सबसे दिखने वाला हिस्सा हैं। जिनके पास ज्यादा गहने हैं, वे समाज में ज्यादा सम्मानित माने जाते हैं। और जो गहने नहीं खरीद सकते, उन्हें हीन भावना से जूझना पड़ता है। लेकिन क्या पंचायत का यह फैसला सचमुच समस्या का हल है या यह एक नई समस्या को जन्म दे रहा है,आखिर किसी को यह अधिकार कैसे मिल सकता है कि वह किसी महिला के कपड़ों और गहनों पर पाबंदी लगाए,यह प्रश्न केवल कानूनी नहीं है, बल्कि नैतिक और सामाजिक भी है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है।
एक गंभीर सवाल :
यह फैसला एक और गंभीर सवाल उठाता है क्या पुरुषों के वस्त्रों और आभूषणों पर भी ऐसी ही पाबंदियां लगाई जाएंगी,अगर नहीं, तो यह एक तरफा नियम क्यों,यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसे नियम अक्सर महिलाओं को ही निशाना बनाते हैं। उनकी आजादी पर अंकुश लगाने के लिए समाज की भलाई का तर्क दिया जाता है। लेकिन क्या समाज की भलाई व्यक्तिगत स्वतंत्रता की कीमत पर हो सकती है। पचास हजार रुपये का जुर्माना भी एक विचारणीय पहलू है। यह राशि इतनी बड़ी है कि लोग डर के मारे नियम का पालन करेंगे। लेकिन क्या डर से लाया गया बदलाव टिकाऊ होता है, इतिहास गवाह है कि जबरदस्ती लागू किए गए नियम कभी सफल नहीं होते। सामाजिक बदलाव तभी आता है जब लोग खुद उसकी जरूरत समझें और उसे अपनाएं। अगर समाज में दिखावे की प्रवृत्ति खत्म करनी है तो लोगों की सोच बदलनी होगी, न कि उन पर जुर्माने का डर थोपना होगा।
जागरूकता के माध्यम से :
गांव के बुजुर्गों और पंचायत सदस्यों का कहना है कि यह निर्णय सामाजिक एकता बनाए रखने और अनावश्यक खर्चों को रोकने के लिए लिया गया है। यह इरादा निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। लेकिन क्या इसका यही तरीका था, क्या पंचायत शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से यह बदलाव नहीं ला सकती थी, क्या लोगों को समझाया नहीं जा सकता था कि सादगी की अहमियत क्या है,क्या यह संभव नहीं था कि समुदाय के सभी लोग मिलकर स्वेच्छा से यह फैसला करते कि वे दिखावे से बचेंगे। दरअसल, समस्या सिर्फ गहनों की नहीं है। समस्या उस मानसिकता की है, जो गहनों को समृद्धि और सामाजिक स्थिति का प्रतीक मानती है। समस्या उस दबाव की है, जो समाज एक-दूसरे पर डालता है।
संस्कृति और परंपराएं :
जौनसार-बावर में महिलाओं को काफी सम्मान और आदर दिया जाता है। यह समुदाय अपनी संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित रखने में गर्व महसूस करता है। ऐसे में यह और भी जरूरी हो जाता है कि कोई भी बदलाव महिलाओं की सहमति से हो, न कि उन पर थोपा जाए। एक और पहलू है जो अक्सर नजरअंदाज हो जाता है। गहने सिर्फ दिखावा नहीं होते। कई परिवारों के लिए गहने एक निवेश भी हैं। महिलाओं के लिए गहने एक तरह की आर्थिक सुरक्षा का माध्यम हैं। यह सच है कि भारतीय समाज में दिखावे की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह भी सच है कि शादी-ब्याह में होने वाला अनावश्यक खर्च कई परिवारों को बर्बाद कर देता है। लेकिन इसका समाधान प्रतिबंध नहीं, बल्कि जागरूकता है।
-देवेन्द्रराज सुथार
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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