अभिभावक ही बच्चे के अच्छे शिक्षक बनें
उन्हें कोई नौकरी और काम धंधा करना है, जो टेंशन हो
अक्सर विद्यार्थियों के विषय में यह सोच बनी हुई है कि उन्हें किस बात की चिंता या टेंशन।
अक्सर विद्यार्थियों के विषय में यह सोच बनी हुई है कि उन्हें किस बात की चिंता या टेंशन। उन्हें कोई नौकरी और काम धंधा करना है, जो टेंशन हो। उन्हें तो सिर्फ पढ़ाई करनी है और यही सोच विद्यार्थियों को समाज में अलग थलग कर देती है। कॅरियर और प्रवेश प्रतियोगिताओं को लेकर बढ़ती प्रतिस्पर्धा, एक अच्छे भविष्य के सपने संजोए बैठे अपरिपक्व मस्तिष्क को मानसिक तनाव के स्याह संसार में उसे धकेल देता है। और उचित भावात्मक सहयोग और मनोवैज्ञानिक परामर्श के अभाव में, अपने एकांकी जीवन से तंग आकर विद्यार्थी ऐसे आत्मघाती कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। बाहर से हमेशा प्रसन्न दिखने वाला विद्यार्थी, मस्तिष्क में तनाव और दबाव के तूफान छिपाए रहता है, जिसे समय रहते यदि न संभाला जाए तो इसके परिणाम दुखद हो सकते हैं। विद्यार्थियों का विभिन्न कारणों से आत्महत्या करना, विद्यार्थियों की खराब मानसिक स्वास्थ्य की ओर संकेत करता है।
ऐसे मामलों में परीक्षा संबंधी तनाव तथा कोचिंग संस्थानों में बढ़ते प्रतियोगी दबाव के कारण विद्यार्थी, सामंजस्य बनाने में नाकामयाब रहने के कारण मानसिक तनाव का शिकार हो रहे हैं। और नासमझी में आत्महत्या जैसी कठोर कदम उठाते है। एक रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि भारत में आबादी बढ़ने की गति की अपेक्षा छात्रों की आत्महत्या करने में तीव्रता देखी जा रही हैं। इससे पता चलता है कि भारत में छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृति तेजी से बढ़ रही है। ये रिपोर्ट केंद्र सरकार की एजेंसी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर आधारित है। जो दुनियाभर में शिक्षा में गुणवत्ता पर काम करती है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में सामान्य आत्महत्या के मामलों में प्रति वर्ष 2 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही हैं। जबकि, छात्रों में यह दर वार्षिक 4 प्रतिशत से बढ़ी है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले लगभग एक दशक में छात्रों की सुसाइड के मामले 6,654 से बढ़कर 13,044 हो गए हैं।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 15 से 24 साल का हर 7 में से 1 व्यक्ति खराब मेंटल हेल्थ से जूझ रहा है। इसमें अवसाद के लक्षण भी शामिल हैं। विद्यार्थी के व्यक्तित्व निर्माण में अभिभावकों और पारिवारिक संस्कारों की विशेष भूमिका होती है। सुसंस्कृत परिवारों में बच्चों को मूल्यपरक शिक्षाएं इसी तरह से बच्चे के व्यक्तित्व में डाली जाती हैं जैसे प्रति दिन भोजन किया जाता है। जिस तरह से भोजन के अभाव में शारीरिक विकास बाधित होता है उसी तरह संस्कारों की खुराक के अभाव में मानसिक और चारित्रिक विकास बाधित होता है। आज जब छोटे छोटे बच्चे सोशल मीडिया और मोबाइल के भंवरजाल में फंसते जा रहे हैं, ऐसे में अभिभावकों को सतर्क रहने की अति आवश्यकता है।
अक्सर देखा गया है कि अभिभावक अपने बच्चों से अपेक्षाएं तो बहुत ऊंची ऊंची रखते है, और उसके अनुसार अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाते हैं, उनके लिए अच्छी से अच्छी कोचिंग सुविधाएं उपलब्ध करवाते हैं, उन्हें अच्छा खाना, अच्छे कपड़े मतलब हर वो चीज जो पैसे से खरीदी जा सकती है, अपने बच्चों पर न्यौछावर कर देते हैं, परंतु एक बहुत छोटी सी मूल्यहीन चीज जिसे हम समय कहते हैं, वो अपने बच्चों को नहीं दे पाते हैं, वो भावात्मक स्पर्श जिसके लिए बच्चा तरसता रहता है, वो उसे कभी नहीं मिलता क्योंकि अभिभावकों के पास, अपने बच्चों लिए समय ही नहीं होता। और ऐसे में बच्चा, सोशल मीडिया और मोबाइल को अपना साथी और दोस्त समझ बैठते हैं।
पहले घरों में दादा दादी या फिर नाना नानी बच्चों के सबसे बड़े नैतिक शिक्षा के अध्यापक होते थे, जो कहानियों के माध्यम से बच्चों के व्यक्तित्व में नैतिक गुणों का समावेश करते थे। पर आज के एकाकी परिवारों के चलन ने ये शिक्षक बच्चों से छीन लिए हैं। एकल परिवारों में पारिवारिक संस्कार नहीं बल्कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के संस्कारों से ही जीवन चलाए जा रहे हैं। जिसका परिणाम हमारे सामने है न तो बच्चे जीवन की चुनौतियों का सामना करने को तैयार हैं और न ही उनके माता पिता। ऐसे में बच्चों में अवसाद और कुंठा का पनपना एक आम सी बात हो चुकी है। बच्चों को अवसाद का नहीं बल्कि प्रसाद का स्वाद चखाना होगा। चाहें शैक्षणिक परीक्षाएं हों या फिर जीवन की परीक्षाएं, अपने बच्चों के साथ हमेशा खड़े रहिए ताकि उसे जब भी मदद की आवश्यकता हो, वह आपकी ओर देखे न कि किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, मोबाइल या फिर काउंसलर की ओर। माता पिता से अच्छा न कोई शिक्षक हो सकता है और न ही कोई परामर्शदाता।
-राजेंद्र कुमार शर्मा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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