पोखर और पारस से किया जा रहा जल संरक्षण, विकास के नाम पर न बिजली और ना ही शिक्षा के लिए स्कूल

कई गांवों की स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो चुकी 

पोखर और पारस से किया जा रहा जल संरक्षण, विकास के नाम पर न बिजली और ना ही शिक्षा के लिए स्कूल

प्रदेश के ​कुछ जिलों के हालात ऐसे हैं कि वहां गांवों में न तो बिजली है और ना ही पानी है।

करौली। प्रदेश के ​कुछ जिलों के हालात ऐसे हैं कि वहां गांवों में न तो बिजली है और ना ही पानी है। ऐसे में लाखों बीघा भूमि बंजर हो चुकी है। लोग गांवों से पलायन कर चुके हैं। इन हालातों में कई गांवों की स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो चुकी है। राजधानी जयपुर से करीब 200 किलोमीटर दूर करौली के डांग क्षेत्र के हालात भी कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसे ही थे। बिजली-पानी नहीं होने से लोग गांवों से पलायन कर चुके थे। हालांकि, उसके बाद ग्रामीणों ने कुछ नया करने की ठानी और अपनी एक अलग ही संस्था बनाकर खुद की तकदीर 'खुद' बदलने की सोची। वर्तमान में वहां पर स्थिति कुछ अलग ही नजर आती है। हालांकि, अब भी विकास कोसों दूर नजर आ रहा है, लेकिन ग्रामीणों के मेहनत काबिल-ए-तारीफ है।

डांग क्षेत्र के 12 गांवों ने वर्षा जल संरक्षण के माध्यम से अपनी तकदीर बदलने का साहसिक कार्य किया है। कभी सूखा, पलायन और गरीबी की मार झेलने वाले इन गांवों में अब पोखरों और पारस (मिट्टी के बांधों) के जरिए पानी का स्थाई समाधान अपने स्तर पर किया है। ग्राम गौरव संस्थान की मदद से ग्रामीणों ने पारंपरिक पद्धतियों का उपयोग करते हुए जल संरक्षण की ऐसी मिसाल पेश की है, जिससे पलायन रुक गया है और खेती फिर से जीवंत हो गई है। हालांकि इस बदलाव के बीच एक सच्चाई यह भी है कि डांग क्षेत्र के अधिकतर गांव आजादी के करीब 77 साल बाद भी बिजली-सड़क और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

इस तरह किया जा रहा है वर्षा जल का संरक्षण :

डांग क्षेत्र के इन गांवों में समतल भूमि नहीं है। हरा पेड़ भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता था। इसका कारण यह था कि वहां पानी की बड़ी किल्लत है। ऐसे में ग्राम गौरव संस्थान के जरिए कुछ जागरूक ग्रामीणों ने एक समूह बनाया और उसके बाद अभावग्रस्त गांवों में लोगों से बातचीत की। वर्तमान में संस्थान कई ग्राम पंचायतों में काम कर वहां के लोगों का जीवन स्तर बदल रही है। संस्थान उन गांवों में काम करता है, जिसके ग्रामीण विकास परियोजना के लिए 33 फीसदी हिस्सा राशि खुद देते हैं। इसके बाद कुछ पैसा कंपनियों से सीएसआर के माध्यम से लिया जाता है। इस पैसे से पोखर, पारस और तालाब बनाए जाते हैं। इसके वर्षा जल को संरक्षित किया जाता है। इसके बाद आसपास की भूमि को समतल कर उसे खेती योग्य बनाया जाता है। बिजली नहीं होने के कारण सोलर पैनल लगाकर दिन में फसलों को पानी पिलाया जाता है। अकेले बारकी गांव में जल्द ही करीब एक हजार बीघा भूमि पर खेती की जाएगी। फिलहाल यहां 300 बीघा भूमि पर करीब तीन दशक बाद खेती-किसानी की जा रही है।

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पहली बार उगाई सरसों-गेहूं की फसल :

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क्षेत्र में करौली के ग्राम चोबेकी ग्राम पंचायत राहर में 75 वर्षीय गोपाल मीणा का कहना है कि हमने कभी सरसों और गेहूं की फसल नहीं उगाई थी। पहली बार यह दोनों फसल डांग क्षेत्र में बोई गई है। इससे किसानों की आमदनी भी बढ़ रही है। किसान बेहद खुश है। उन्होंने यह भी बताया कि पहली बार जब किसानों ने टमाटर की खेती की तो उन्होंने एक भी टमाटर नहीं बेचा। दरअसल, उस समय टमाटर काफी महंगे हुए थे तो किसानों ने फ्री में टमाटर वितरित किए, क्योंकि यह उनकी पहली सब्जी की फसल थी। उन्होंने इस फसल को नहीं बेचने का निर्णय किया और केवल अपने लोगों में वितरित किया।

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पलायन तो रूका, लेकिन विकास अब भी ठहरा : गोस्वामी

ग्राम गौरव संस्थान के मुरारी मोहन गोस्वामी का कहना है कि पलायन तो रुक गया है, लेकिन विकास अब भी ठहरा हुआ है। स्कूल, बिजली, सड़क जैसी सुविधाएं नहीं मिलने के कारण बच्चे पढ़ नहीं पाते और भविष्य अंधकारमय है। वहीं, सचिव जगदीश गुर्जर ने बताया कि अब गांव में दूध, अन्न और पानी की कोई कमी नहीं है, लेकिन विकास अधूरा है। ग्रामीणों ने बताया कि सोलर पंप से दिन में तो सिंचाई होती है, लेकिन रात में अंधेरे के कारण जीवन ठहर सा जाता है। गांव के युवा राकेश मीणा ने बताया कि उन्होंने मिट्टी के बांध बनाकर जल संरक्षण का कार्य किया है और एक युवा समूह भी बनाया गया है जो इन स्रोतों की देखरेख करता है।

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