जानिए राजकाज में क्या है खास?

जानिए राजकाज में क्या है खास?

सूबे में इन दिनों दोनों दलों में अशांति है लेकिन दोनों बड़े बंगलों में पूर्ण शांति है। सिविल लाइन्स स्थित इन दोनों बंगलों में रहने वाले बड़े लोग भी चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। हाथ वाले भाई लोगों में नौ महीनों से शांति की तलाश है, तो कमल वाले भाइयों में तीन महीने से अशांति है। दोनों तरफ काचे कलवों की कमी नहीं हैं।

एल एल शर्मा
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तूफान के पहले की शांति

सूबे में इन दिनों दोनों दलों में अशांति है लेकिन दोनों बड़े बंगलों में पूर्ण शांति है। सिविल लाइन्स स्थित इन दोनों बंगलों में रहने वाले बड़े लोग भी चुपचाप तमाशा देख रहे हैं। हाथ वाले भाई लोगों में नौ महीनों से शांति की तलाश है, तो कमल वाले भाइयों में तीन महीने से अशांति है। दोनों तरफ काचे कलवों की कमी नहीं हैं। भगवा वाले भाई लोगों ने स्याणों और भोपों से सारे टोटके करा लिए मगर कलवों की ऊछल-कूद थमने का नाम ही नहीं ले रही। हाथ वाले कलवे भी अमावस्या की रात को कुछ ज्यादा राती जगा करवाते हैं। पीसीसी में सालों से आ रहे गांधी टोपी वाले बुजुर्गवार की मानें तो हाथ वाले दल में यह तूफान से पहले की शांति है। चैत्र के नवरात्रों में इतने काचे कलवे पैदा होंगे कि उनको घड़े में डालने के लिए दिल्ली तक के स्याणे बुलाने पड़ेंगे। फिलहाल तूफान से पहले की पूर्ण शांति है।

चप्पलों का राज
चप्पल तो चप्पल ही होती है, लेकिन कुछ चप्पलें खास होती हैं, जिनकी चर्चा हुए बिना नहीं रहती। अब देखो ना हमारे सूबे के हाथ वाले कुछ भाई लोग चप्पल के राज को ढूंढने में लगे हैं, लेकिन अभी तक तह तक नहीं पहुंच पाए। चप्पलें भी और किसी की नहीं बल्कि जोधपुर वाले अशोकजी भाई साहब की है। उनकी चप्पलों के पीछे छिपे राज को भी उनका काज करने वाले ही सीना तान कर बता रहे हैं। इंदिरा गांधी भवन में बने पीसीसी के ठिकाने पर चर्चा है कि जब भी भाई साहब के सामने संकट आता है, तो वे सिर्फ काले रंग की चप्पलें ही पहनकर निकलते हैं। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि सामने वाले की नजरें जब भी साहब की इन चप्पलों की तरफ पड़ती है, तो उनका रंग तक बदलता दिखता है, और उसकी ताकत आधी रह जाती है। जादूगरजी की इन जादुई चप्पलों की चर्चा रवि को तो कई भाई लोगों की जुबान पर थी।

चर्चा जूते और नेताओं की
आजकल नेताओं के साथ जूते भी चर्चाओं में हैं। जनता का जूता कब किस नेता पर खुल जाए, यह पता नहीं चल पाता। जूते का असर इक्कीसवीं सदी के नेताओं पर कितना पड़ता है, यह तो कहा नहीं जा सकता, लेकिन जूता बनाने वाली कंपनियों की कमाई पर इसका जरूर असर पड़ता है। कंपनी वाले पेटेंट कराने के लिए दौड़धूप भी करते हैं। जूते-जूते में फर्क होता है। नेता जब आपस में शब्द बाणों से एक दूसरे पर जूते मार रहे हैं, तो जनता अब हकीकत में उठाने लगी है। जूते उठाने या फिर फेंकने की परम्परा नई नहीं है। यह सिलसिला प्रथम विश्व युद्ध से ही शुरू हो गया था। उस समय जनता ने राजा- महाराजाओं के खिलाफ जूता उठाया तो उनको राज छोड़ना ही पड़ा। अब नेताओं पर सरे आम जूते फेंके जा रहे हैं। राज का काज करने वालों में चर्चा है कि आने वाले समय में जो नेता ज्यादा जूते खाएगा, वो सबसे अच्छा राजनेता साबित होगा। चूंकि जनता इतनी सयानी है कि वह नेताओं के लखणों के आधार पर ही जूता मारेगी।

एक जुमला यह भी
सूबे में इन दिनों एक जुमला जोरों पर है। जुमला भी छोटा-मोटा नहीं बल्कि भ्रष्टाचार को लेकर है। भ्रष्टचार भी हजारों से नहीं बल्कि लाखों से ताल्लुकात रखता है। जुमला भी ब्यूरोक्रेसी के साथ-साथ सफेद कपड़े वाले नेताओं में भी काफी चर्चित है। जुमला है कि गुजरे जमाने में जिन लोगों ने भ्रष्टाचार करने में सारी हदें पार कर दी थी, अब वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के दावे ठोक रहे हैं। दावा भी एसीबी वाले करें, तो समझ में आता है, लेकिन जमीनों से जुड़े लोग करें, तो यह किसी मजाक से कम नहीं है। अब भाई लोगों को कौन समझाए कि हमारे बुजुर्गों ने सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चले वाली कहावत यूं ही थोड़े बनाई गई है, उन्होंने भी तो कुछ अनुभव लिया ही होगा।
(यह लेखक के अपने विचार हैं) 

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