रामकल्याण ने सीने पर गोली खाई पर फिर भी थामे रहे तिरंगा
जरा याद इन्हें भी कर लो, जो लौट के फिर ना आए
शहीद राम कल्याण बूंदी प्रजा मंडल के अध्यक्ष और बूंदी नगर पालिका में उपाध्यक्ष के पद पर निर्वाचित हुए थे।
बूंदी। 11 अगस्त 1947 को अंग्रेजों के सामने निकाली गई तिरंगा यात्रा पर अंग्रेजों ने अंधाधुंध फायरिंग कर दी, जिससे तिरंगा यात्रा में भगदड़ मच गई। फायरिंग के बावजूद नेतृत्व कर रहे शहीद राम कल्याण तिरंगा हाथों में लेकर भारत माता की जय के नारे लगाते रहे। अंग्रेजों की चेतावनी के बावजूद स्वतन्त्रता सैनानी राम कल्याण ने तिरंगा नहीं छोड़ा और सीने में गोली खाकर अपना बलिदान दे दिया। जहां पर यह शहीद हुए वहां इनका स्मारक बना हुआ है और मूर्ति स्थापित हैं और सर्किट हाउस से खोजा गेट वाले रोड़ का नामकरण भी शहीद राम कल्याण के नाम पर किया गया हैं।भारत देश अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। पूरे देश भर में अमृत महोत्सव को लेकर उत्साह है। जोर शोर से तिरंगा यात्रा निकाली जा रही है। घर-घर तिरंगे लगाए जा रहे हैं। देश की स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर न्योछावर होने वाले शहीदों, स्वतन्त्रता सैनानियों को याद कर रहे हैं। उन तमाम ज्ञात अज्ञात सैनानियों के त्याग और बलिदान से आने वालीं पीढ़ी को बताया जा रहा हैं। ऐसे में उन स्वतन्त्रता सैनानियों की चर्चा आवश्यक हो जाती हैं, जिनके त्याग और बलिदान को हम विस्मृत कर चुके हैं -शहीद राम कल्याण के दोहिते सौभाग्य शर्मा बताते हैं कि 1912 में जन्में शहीद राम कल्याण के पिता बून्दी के राजपरिवार के लिए खाना पकाने का काम करते थे। स्वयं मेहनत मजदूरी करते हुए पढ़ाई की और वकीलों के पास मुंशी का काम करते हुए ही वकील बने। शहीद राम कल्याण बूंदी प्रजा मंडल के अध्यक्ष और बूंदी नगर पालिका में उपाध्यक्ष के पद पर निर्वाचित हुए थे। इनके विवाह भंवरी बाई से हुआ था, जिनसे दो संताने हुई। सौभाग्य शर्मा ने बताया कि 11 अगस्त 1947 को अपनी तांगे से सुबह करीब नौ बजे घर से हिंडोली कोर्ट के लिए निकले। राम कल्याण अपनी दोनों पुत्रियों को विद्यालय छोड़कर बूंदी के नाहर चोहट्टा स्थान तक पहुंचे। जहां जानकारी मिली थी आज मोटर व्यवसाय एसोसिएशन के आंदोलन के जुलूस का नेतृत्व करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में राम कल्याण त्वरित निर्णय लिया और अपने तांगे वाले को वापस लौटा दिया और खुद पैदल जुलूस का नेतृत्व करने के लिए निकल गए।
अंग्रेजी प्रशासन द्वारा शहर के परकोटे में धारा 144 लगा देने से मोटर व्यवसाय एसोसिएशन के आंदोलन के जुलूस शहर के परकोटे के बाहर निकाला गया, जिसे थोड़ा आगे बढ़ने पर अंग्रेज पुलिस ने रोक दिया गया। शहीद रामकल्याण शर्मा जुलूस में सबसे आगे तिरंगा थामे चल रहे थे। पुलिस द्वारा जुलूस रोकने के बाद जुलूस में शामिल लोगों पर हवाई फायरिंग करने से मची भगदड़ मच गई। ऐसे में बचने के लिए लोग इमली के पेड़ों पर चढ़ गए। लेकिन शहीद रामकल्याण शर्मा झंडे को लिए कुछ लोगों के साथ वही डटे रहे। अंग्रेजों द्वारा उनसे जुलूस बंद करने, झंडे को छोड़कर परिवार की दुहाई देते हुए चले जाने को कहा। लेकिन राम कल्याण ने भारतीय तिरंगे को नहीं छोड़ा और कई चेतावनी के बाद भी शहीद रामकल्याण शर्मा जीवन की परवाह किए बिना वहीं डटे रहे। आखिर में पुलिस द्वारा उन पर गोली चला दी गई और वह तिरंगे को सीने से लगाए धरती पर गिर पड़े। देखते ही देखते सारी भीड़ तीतर भीतर हो गई। गोली लगने के बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका और आजादी के दिवस से महज 4 दिन पूर्व उन्होंने तिरंगे की शान में अपना बलिदान दे दिया।
आंख में गोली लगने से अभय शंकर गुजराती की रोशनी चली गई
जिस आंदोलन में शहीद राम कल्याण ने अंग्रेजों की गोली खाकर अपना बलिदान दिया, उसी आंदोलन में पुलिस ने गोलीबारी में अभय शंकर गुजराती ने अपनी आंखों की रोशनी चली गई। गुजराती के पौत्र विकास शर्मा बताते हैं कि 11 अगस्त 1947 को हुई गोलीबारी में एक गोली उनकी आंख में लगी और गोली के कारतूस से अभय शंकर गुजराती की कलाई और जांघ घायल हो गई। इनकी आंख में लगी गोली तो डॉक्टरों ने निकाल ली लेकिन बाकी दो गोले उनके आखिरी समय तक उनके शरीर में मौजूद रहे। अभय शंकर गुजराती का जन्म 21 नवंबर 1913 को बूंदी जिले के जमींदार घराने में मूलचंद एवं भंवरी बाई उर्फ जाना बाई के घर हुआ था। लेकिन बाल्यावस्था में ही पिता की मौत के बाद मां की शिक्षा ने आजादी की लड़ाई में कूदने के लिए प्रोत्साहित किया। 12 वर्ष की उम्र से ही इनके मन में दासता से मुक्त होने की लहरें उमड़ने लगी थी। इनके स्वतंत्रता आंदोलनों में व्यस्त रहे, जिसके कारण उनकी जमीन पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया ताक कछ को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। परिणामस्वरूप, उन्हें जीवन यापन के लिए एक ब्रिटिश इलेक्ट्रिक कंपनी में बस मैकेनिक और बस ड्राइवर की नौकरी करनी पड़ी। वर्ष 1926 में एक सभा के दौरान ब्रिटिश सेना के लाठीचार्ज में अभय शंकर गुजराती गंभीर रूप से घायल हो गये। कांग्रेस की नीति और सिद्धांत से प्रभावित जानकारी हुई तो 18 वर्ष की आयु में पार्टी के सदस्य बनकर गोष्ठियां, प्रभात फेरी आयोजित करने लगे। ऋषि दत्त मेहता, केसरी लाल कोटिया से कांग्रेस के उद्देश्यों सीखने वाले अभय शंकर गुजराती को हरावल दस्ते के रूप में जाना जाता था। देश को मिली आजाद के बाद अभय शंकर गुजराती स्वतंत्र भारत में सेनानी तो बन गए, लेकिन सरकार ने उनकी कोई कदर नहीं की। गुजराती के पुत्र मुकुट बिहारी गुजराती बताया कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के लिए राज्य सरकार ने 2 अक्टूबर 1987 को ताम्रपत्र से सम्मानित किया और 14 नवम्बर 1987 को स्वतंत्रता सेनानी पेंशन प्रदान की। स्वतंत्रता सेनानी अभय शंकर गुजराती का निधन 3 फरवरी 2004 को हुआ था। जिनका पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। हांलाकि इनके मन में सरकार की उदासीनता को लेकर खिन्नता भी हैं कि 750 बीघा जमीन के मालिक होने के बावजूद आराम की जिन्दगी जीने की जगह उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ लुटा दिया।
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