बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित भारतीय कर्मचारी

बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित भारतीय कर्मचारी

सबसे पहले हमें यह समझने की आवश्यकता है कि बर्नआउट सिंड्रोम अवसाद के समान नहीं है। लेकिन बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित लोग अवसाद के समान लक्षणों का अनुभव करते हैं।

हमें यह जानकर बड़ी हैरानी होगी कि लगभग 59 फीसदी भारतीय कर्मचारी बर्नआउट सिंड्रोम यानी मानसिक, शारीरिक थकावट के लक्षणों से पीड़ित हैं। यह दुनिया के किसी भी अन्य मुल्क की तुलना में काफी ज्यादा तादाद है। बता दें कि यह दावा मैकिन्जी हेल्थ इंस्टीट्यूट के अध्ययन में किया गया है। इंस्टीट्यूट के अध्ययन के मुताबिक, अफ्रीकी देश कैमरून के कर्मचारियों में बर्नआउट सिंड्रोम सबसे कम नौ फीसदी मिला। सर्वेक्षण में करीब 30 मुल्कों के 30 हजार से ज्यादा कर्मचारियों को शामिल किया गया। उल्लेखनीय है कि दुनियाभर में 22 फीसदी कर्मचारी बर्नआउट से पीड़ित हैं। सऊदी अरब में 36 फीसदी कर्मचारियों में बर्नआउट के लक्षण मिले हैं। जिन कर्मचारियों के पास सकारात्मक कार्य का अनुभव था, उनके पूरा स्वास्थ्य बेहतर था। यह कहा जा सकता है कि कार्यस्थल पर सकारात्मक वातावरण और बेहतर समन्वय बर्नआउट सिंड्रोम के प्रभाव को कम कर सकता है। अगर समय रहते इस ओर प्रयास नहीं किए गए तो कार्य क्षमता के गंभीर रूप से प्रभावित होने के साथ ही साथ स्वास्थ्य संकट से भी दो-चार होना पड़ेगा। मौजूदा वक्त में बढ़ती जिम्मेदारियों और बदलती परिस्थितियों की वजह से कई बार लोग बर्नआउट सिंड्रोम के शिकार हो जाते हैं, लेकिन उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। बर्नआउट पर ध्यान न देने से शारीरिक, मानसिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लिहाजा, बर्नआउट सिंड्रोम के प्रभाव से भारतीय कर्मचारियों को बाहर निकालने के लिए व्यक्तिगत और संस्थागत प्रयास किए जाने निहायत तौर पर जरूरी हो जाते हैं। इस बीच आम आदमी के मन-मस्तिष्क में इस सवाल का कौंधना स्वाभाविक है कि आखिर बर्नआउट सिंड्रोम क्या है? और इसके लक्षणों को हम किस प्रकार पहचान सकते हैं? दरअसल बर्नआउट सिंड्रोम क्रॉनिक वर्कप्लेस स्ट्रेस की वजह से हो सकता है। काम का प्रेशर झेलना, साथियों से अनबन, चुनौतियों के बीच खुद को कमजोर पाना, इस सिंड्रोम की वजह बनती है। बर्नआउट से शरीर और दिमाग दोनों पर असर होता है, जिसे हम महज थकान समझ रहे हैं, वह बर्नआउट हो सकता है। जिसका असर दिल और दिमाग दोनों पर होता है। जब हम मानसिक रूप से परेशान रहते हैं, तो इसका असर ब्लड शुगर और ब्लड प्रेशर पर भी पड़ता है। क्योंकि स्ट्रेस के दौरान शरीर में कुछ ऐसे हार्मोन्स निकलते हैं, जिससे दिल की धड़कन और ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। इन चीजों से आगे जाकर हार्ट प्रॉब्लम, स्ट्रोक का खतरा हो सकता है। लेकिन इन सबसे पहले बर्नआउट के लक्षणों की समझ का होना आवश्यक है। जिससे हम खुद को बर्नआउट जैसी समस्या से बचा सकें। 

सबसे पहले हमें यह समझने की आवश्यकता है कि बर्नआउट सिंड्रोम अवसाद के समान नहीं है। लेकिन बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित लोग अवसाद के समान लक्षणों का अनुभव करते हैं। दरअसल, जो लोग बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित हैं, उनमें अवसाद विकसित होने का जोखिम उन लोगों की तुलना में अधिक है जो बर्नआउट सिंड्रोम से पीड़ित नहीं हैं। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि बर्नआउट सिंड्रोम के सभी मामले अवसाद का कारण बनेंगे। यदि हम बर्न आउट सिंड्रोम के लक्षणों की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, बर्नआउट सिंड्रोम क्रोनिक वर्कप्लेस स्ट्रेस की वजह से हो सकता है यानी काम को लेकर बढ़ा हुआ तनाव इस सिंड्रोम का शुरुआती लक्षण है। इसके अलावा एंग्जाइटी और पैनिक अटैक की समस्या, मानसिक और शारीरिक थकान रहना, ज्यादातर स्ट्रेस में रहना, काम में रुचि कम होना, उदास रहना, अपनी नौकरी को पसंद नहीं करना, आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की कमी, मूड स्विंग्स की समस्या, नींद मुश्किल से आना, दिल का तेजी से धड़कना और सांस जल्दी-जल्दी लेना एवं आंत और पाचन से जुड़ी दिक्कत होना बर्नआउट के लक्षणों में शामिल हैं। अब सवाल कि इन लक्षणों को पहचानने के बावजूद इससे बाहर कैसे निकला जाए? दरअसल, बर्नआउट से बचने के लिए बार-बार या लंबे समय से चले आ रहे तनाव को सुलझाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही साथ काम को घर लाना और घर की चीजों पर ध्यान न दे पाना। काम को लेकर बहुत ज्यादा तनाव महसूस करना और वर्क लाइफ बैलेंस मैंटेन नहीं कर पाना एवं जीवन शैली में बदलाव आना। ये कुछ बातें हैं जो हमें बर्नआउट की तरफ लेकर जाती हैं। इस पर कार्य करना भी जरूरी है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि कार्यस्थल पर सकारात्मक वातावरण के न होने से कार्यक्षमता पर बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आज आधुनिक युग में व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ाने की आवश्यकता के बीच बर्न आउट सिंड्रोम की समस्या बहुत बड़ी चुनौती पेश कर रही है।

-अली खान
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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