राजस्थान के निर्माण में मत्स्य संघ की पहल

राजस्थान के निर्माण में मत्स्य संघ की पहल

विश्व के सर्वाधिक प्राचीन पर्वतों की श्रेणी में सम्मिलित अरावली पर्वत श्रृंखला के अवशेषों के प्रतीक राजस्थान को भौगोलिक दृष्टि से भारत के सबसे बड़े प्रदेश होने का गौरव हासिल है।

विश्व के सर्वाधिक प्राचीन पर्वतों की श्रेणी में सम्मिलित अरावली पर्वत श्रृंखला के अवशेषों के प्रतीक राजस्थान को भौगोलिक दृष्टि से भारत के सबसे बड़े प्रदेश होने का गौरव हासिल है। लेकिन वर्तमान राजस्थान के इस कलेवर को आकार देने में लगभग आठ वर्ष का समय लगा। कभी राजपूताना नाम से पहचान बनाने वाले इस प्रांत की देशी रियासतों के विलीनीकरण की प्रक्रिया का श्रीगणेश तत्कालीन भरतपुर, अलवर, करौली, धौलपुर रियासत को मिलाकर गठित मत्स्य संघ के गठन से हुआ। देश विभाजन के साथ ही भारत को 1947 में ब्रिटिश हुकूमत से छुटकारा मिला। अंग्रेजोंं ने जाते-जाते भारत के विभिन्न राज्यों की देशी रियासतों को अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने अथवा भारत पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प खुला रखा। तब लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के लिए जम्मू कश्मीर रियासत को छोड़ शेष देशी रियासतों के एकीकरण का बीड़ा उठाया। पटेल की समझबूझ युक्त कूटनीति से राजस्थान के वर्तमान स्वरूप का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस प्रदेश का भू-भाग मानव सभ्यता के प्रत्येक काल खण्ड का साक्षी रहा है। इस अभियान की शुरूआत दिल्ली में 27 फरवरी 1948 को केन्द्रीय सरकार की पहल से हुई। अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली रियासत के तत्कालीन नरेशों ने केन्द्र के प्रस्ताव पर चारों रियासतों के विलीनीकरण के साथ मत्स्य नाम से नए राज्य संघ के गठन संबंधी सहमति व्यक्त की। इन रियासतों की आमदनी 18 करोड़ 30 लाख कुल क्षेत्रफ ल 7536 वर्ग मील तथा जनसंख्या एक लाख 83 हजार आंकी गई। मत्स्य प्रदेश की राजधानी अलवर रही। धौलपुर नरेश राजप्रमुख, अलवर नरेश उप राजप्रमुख एवं शोभाराम प्रधानमंत्री बनाए गए। भरतपुर से युगल किशोर चतुर्वेदी, गोपीलाल यादव, उप प्रधानमंत्री तथा अलवर से मास्टर भोलानाथ, धौलपुर से डॉ.मंगलसिंह एवं करौली से चिरंजीलाल शर्मा मंत्री नियुक्त किए गए। तत्कालीन केन्द्रीय विद्युत एवं खनिज मंत्री नरहरि विष्णु गाडगिल ने 18 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद्घाटन किया। श्री गाडगिल से एक सप्ताह पश्चात् विलीनीकरण के अगले चरण में 25 मार्च को राजस्थान संघ का उद्घाटन कराया गया। इस संघ मे हाड़ौती क्षेत्र के कोटा, बूंदी, झालावाड मेवाड़ के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ तथा टोंक, किशनगढ़ और शाहपुरा रियासतें सम्मिलित हुईं।

विलीनीकरण प्रक्रिया के तीसरे चरण में उदयपुर रियासत के मिलने से गठित संयुक्त राजस्थान का 18 अप्रैल, 1948 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने उदयपुर में उद्घाटन किया। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर रियासतों के स्वतंत्र बने रहने की मन: स्थिति में सरदार पटेल के प्रयासों से इन तीनों रियासतों के साथ जैसलमेर रियासत भी अब वृहद राजस्थान का हिस्सा बन गई। सरदार पटेल ने 30 मार्च, 1949 को जयपुर में इसका उद्घाटन किया। विडम्बना यह रही कि अलवर-करौली-भरतपुर- धौलपुर रियासत को मिलाकर मत्स्य संघ के गठन से देशी रियासतों के एकीकरण की पहल के बावजूद नए संघ का पृथक अस्तित्व बना हुआ था।

ब्रज संस्कृति से परिपूर्ण भरतपुर एवं धौलपुर रियासत के नरेशों के समक्ष यह धर्म संकट था कि वे राजस्थान में ही रहें अथवा उत्तर प्रदेश में शामिल हों। इसके समाधान के लिए रियासती मंत्रालय द्वारा श्री शंकर राव देव की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय समिति ने व्यापक जनसम्पर्क एवं एकत्रित साक्षियों के आधार पर मत्स्य संघ को राजस्थान में मिलाने की सिफारिश की। इस पर भारत सरकार की एक मई 1949 की विज्ञप्ति के फलस्वरूप मत्स्य संघ 15 मई को वृहद राजस्थान का अंग बन गया। छठे चरण में सिरोही रियासत का विलय 7 फ रवरी 1950 को हुआ। इससे पहले जनवरी माह में सिरोही के विभाजन के साथ आबू एवं देलवाड़ा तहसीलों को तत्कालीन बम्बई प्रांत और शेष हिस्सा राजस्थान में शामिल करने का निर्णय लिया गया था। पुन: राज्यों के पुनर्गठन के समय छ: वर्ष के अंतराल पर आबू-देलवाड़ा-राजस्थान में मिलाए गए। अब तक केन्द्र शासित तत्कालीन अजमेर मेरवाड़ा राज्य को एक नवम्बर 1956 को राजस्थान में मिलाने से वर्तमान राजस्थान के एकीकरण का सातवा चरण पूरा हुआ।

ब्रिटिश शासन राजा महाराजाओं तथा जागीरदारों सामंतों की त्रिस्तरीय गुलामी के शिकंजे में फंसी राजस्थान की जनता अलग-अलग रियासतों में कुशल नेतृत्व के चलते स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित हुई। आम जनता के विभिन्न वर्गों ने अंग्रेजी साम्राज्य का जुआ उतारने का संकल्प लिया। इसके विस्तृत इतिहास के संकलन और लेखन की दृष्टि से गहन शोध की आवश्यकता है। राष्ट्रीय चेतना का ज्वार उत्पन्न करने वाले आनंद मठ के विद्रोह के एक सौ वर्ष के अंतराल पर 1857 की सैनिक क्रांति के अनाम नायकों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को सार्वजनिक किया जाना अपेक्षित है। देशी रियासतों के नरेशों के लिए वार्षिक प्रिवीपर्स की राशि भी निर्धारित की गई।
-गुलाब बत्रा
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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