सतरंगी सियासत

सतरंगी सियासत

जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के वादे और इरादे सामने। साथ में, भाजपा और कांग्रेस में ऐन चुनावी मौके पर सांगठनिक नियुक्तियां भी इशारा कर रहीं।

हद हो गई...
अमरीकी दोगलेपन की एक और बानगी। एक तरफ तो पीएम मोदी अमरीका की धरती पर थे। और जब वह बाइडेन से बात कर रहे थे। उसी समय व्हाइट हाउस में खालिस्तानी तत्वों से अमरीकी अधिकारियों की चर्चा हुई। यह अमरीकी दोहरे चरित्र का सबूत। अमरीका हमेशा से लोकतंत्र और मानवाधिकारों के नाम पर हर देश में दखल देता रहा। वहीं, खुद अपनी ही धरती पर आतंकी तत्वों को पालता पासता। ऐसे में, अब भारत का रूख क्या होगा? लेकिन इतना तय। अमरीका भारत की बढ़ती हुई ताकत को सहन नहीं कर पा रहा। जो वह कर रहा। यह उसकी बौखलाहट का प्रमाण। यह काम ठीक वैसे ही। जैसे, जब दिल्ली में पाक प्रतिनिधि आते। तो वह भारत के साथ आधिकारिक वार्ता से पहले कश्मीरी अलगाववादियों से मिलते। लेकिन अब वह अतीत की बात। एक दिन यही हाल अमरीका का होगा।

वादे-इरादे!
जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के वादे और इरादे सामने। साथ में, भाजपा और कांग्रेस में ऐन चुनावी मौके पर सांगठनिक नियुक्तियां भी इशारा कर रहीं। जबकि नेशनल कांफे्रंस और पीडीपी के लिए स्थानीय एवं क्षेत्रीय दल परेशानी बढ़ा रहे। फिर राशिद इंजीनियर जैसे नेता दोनों ही दलों की धड़कनें तेज रहे। सो, आपस में तीखे आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी। हां, भाजपा को छोड़ सभी दलों में एक ही होड़। दावा कर रहे कि प्रदेश में अनुच्छेद- 370 की बहाली करेंगे। लेकिन कैसे करेंगे? यह कोई नहीं बताता। और इसमें एनसी की सहयोगी कांग्रेस भी। केवल एक भाजपा ही। जिसने साफ कर दिया। ऐसा कभी नहीं होगा। क्योंकि अनुच्छेद- 370 अब अतीत। और उसे इतिहास का एक विशिष्ट पन्ना समझकर भूल जाना ही सभी के लिए श्रेयकर होगा। वैसे भी अब आम जनता जागरूक। ख्याली वादों का क्या?

यह तो बहाना!
पूर्व सीएम अशोक गहलोत ने जयपुर में राज्य सरकार के खिलाफ एक दिन के धरने की घोषणा क्या की। मामला निपटता सा लगा। सवाल यह नहीं कि मुद्दा क्या? बल्कि यह कि वह फिर से मैदान में। गहलोत एक साथ कई तीर छोड़ रहे। अपनों के लिए, राज्य सरकार एवं भाजपा के लिए भी। तो क्या माना जाए? गहलोत ने सूंघ लिया कि भविष्य में कुछ बड़ा घटनाक्रम होने जा रहा। और वह अपने पिटारे में से जादू दिखाने की तैयारी कर रहे। गहलोत स्वास्थ्य लाभ के लिए करीब तीन माह से आराम कर रहे थे। उसके बाद दिल्ली आए। तुरंत उन्हें हरियाणा चुनाव में जिम्मेदारी मिल गई। लेकिन राजस्थान से कभी दूर नहीं होते। तो क्या गहलोत सही समय का इंतजार कर रहे। सो, धरने की बात तो बहाना। शायद यही संकेत। आराम के बहाने आत्ममंथन तो नहीं किया?

दोहरे मापदंड
जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव परिणाम पर पूरी दुनियां की नजरें। खासतौर से वह ताकतें। जो भारत को आगे बढ़ता हुआ देखना ही नहीं चाहतीं। इसीलिए उनके लिए यदि चुनाव ठीक नहीं रहे। तो समझो मिशन पूरा! लेकिन ऐसा होगा नहीं। क्योंकि पहले दो चरणों में सूबे की अवाम ने जिस उत्साह तरह से मतदान में हिस्सा लिया। वह तो कुछ और ही कहानी बयां कर रहा। हां, यदि भाजपा जीती। तो यह ‘चुनाव’। और यदि विपक्ष जीत गया। तो कहानी एकदम विपरीत होगी। फिर एजेंडे और नेरैटिव का खेल चलेगा। जो आज तक जम्मू-कश्मीर के बारे में चलता रहा। यही ताकतें कहेंगी। चुनाव अनुच्छेद- 370 पर जनमत संग्रह जैसा था। जिसमें भाजपा फेल हो गई! और यही राग सब ओर सुनाई देने की संभावना। फिलहाल तो भाजपा के लिए सुखद खबर! करीब ढाई दर्जन निर्दलीय प्रत्याशी प्रभावी चुनाव लड़ रहे।

तीन सीएम
कर्नाटक सीएम सिद्धरमैया एक जमीन के मामले में फंसे हुए। हाईकोर्ट ने इसे सही पाया। अब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाएगा। और यदि एससी ने भी इसे बरकरार रखा। तो शायद पद छोड़ना पड़ जाए। इधर, भाजपा और डीके शिवकुमार अपनी बारी के इंतजार में। इसी प्रकार, तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन 2026 से पहले बेटे को डिप्टी बनाना चाहते। लेकिन उनके ही वरिष्ठ साथी इसे पचा नहीं पा रहे। जिससे स्टालिन असमंजस में। फिर सरकार में गठबंधन सहयोगी वीसीके अलग राह चुनने का संकेत दे रही। वहीं, पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी इन दिनों भारी दबाव में। जिसका लाभ कांग्रेस लेने के फिराक में। इसीलिए वहां पीसीसी भी बदल दिया गया। कांग्रेस को लग रहा। ममता से कुछ भी पाने का यही अवसर। मतलब कांग्रेस को अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन में से कुछ मिलने की आस।

उफान पर...
जम्मू-कश्मीर और हरियाणा ही नहीं। बल्कि महाराष्टÑ और झारखंड में भी चुनावी माहौल उफान पर। खासतौर से महाराष्टÑ को लेकर सभी की निगाहें। वहीं, झारखंड में आरक्षण एवं आदिवासी कार्ड कितना चल पाएगा। यह देखने वाली बात होगी। हां, जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से पहले के मुकाबले शांतिपूर्ण तरीके से बंपर वोटिंग हुई। उससे वह तमाम लोग एवं संगठन ठंडे पड़ गए। जो आजादी के सात दशक बाद भी एक विशेष एजेंडा चला रहे थे। हां, बात महाराष्टÑ की हो रही थी। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी। चुनाव से पहले चाचा, भतीजा एक साथ आने की सुगबुगाहट। वहीं, अमित शाह ने तो विचारधारा तक की बात कर डाली। उद्धव ठाकरे अभी भी संकट में। सीएम शिंदे भाजपा के मजबूत साथ से पूरी तरह मुतमईन लग रहे। इधर, देवेन्द्र फड़नवीस ही नहीं। नितिन गडकरी को लेकर भी कई चर्चाएं तैर रहीं!

घेराबंदी...
मानो भारत की घेराबंदी हो रही। और यह अमरीका और चीन द्वारा। सबसे ताजा बांग्लादेश। इससे पहले मालदीव। फिर पाक का तो कहना ही क्या? वह तो सदाबहार। डेढ़ दशक पहले नेपाल वामपंथी हो गया। अब श्रीलंका में भी चीन से निकटता रखने वाले वामपंथी राष्टÑपति आ गए। चीन ने भारत से दुश्मनी की शुरूआत तिब्बत को कब्जा करके की। 1962 में युद्ध भी कर लिया। एशिया पर अमरीका की लंबे समय से नजर। भारत के लिए असहज स्थिति। अमरीका चाहता कि चीन से लड़ने में भारत उसकी मदद करे। लेकिन भारत का इनकार और न ही इस ट्रेप में फंसा। अमरीका की लगातार कोशिश। रूस से भी भारत दूर रहे। लेकिन अब तक ऐसा हुआ नहीं। अमरीका लोकतंत्र और मानवाधिकारों की आड़ में हर उस देश में बवाल करवाता। जो भविष्य में उसे चुनौती देने की स्थिति में हो।

दिल्ली डेस्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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