जाति जनगणना : सरकार का एक महत्वपूर्ण कदम
1931 के बाद से व्यापक जाति आधारित आंकड़े एकत्र नहीं किया गया
आगामी जनगणना में जाति विवरण शामिल करने का सरकार का निर्णय एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है।
आगामी जनगणना में जाति विवरण शामिल करने का सरकार का निर्णय एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है, क्योंकि 1931 के बाद से व्यापक जाति आधारित आंकड़े एकत्र नहीं किया गया है। समर्थकों का तर्क है कि सामाजिक न्याय कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से लागू करने और समान संसाधन वितरण सुनिश्चित करने के लिए अद्यतन सूचना आवश्यक है। हालांकि, विरोधियों का तर्क है कि इस तरह की जनगणना जाति चेतना को बढ़ा सकती है और सामाजिक विभाजन को गहरा कर सकती है जाति व्यवस्था, एक गहरी सामाजिक व्यवस्था है, जो ऐतिहासिक रूप से व्यक्तियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और अवसरों तक पहुंच को निर्धारित करती है।
जाति भारतीय समाज के कई पहलुओं को आकार देने के लिए एक पहचान बनी हुई है। समाजशास्त्रियों ने जाति व्यवस्था की कई प्रमुख विशेषताओं की पहचान की है। उनमें पारंपरिक पदानुक्रमिक संरचना, अंतर्जातीय विवाह, अंतरजातीय विवाह का प्रतिरोध, सामाजिक संपर्क पर प्रतिबंध, पारंपरिक व्यावसायिक विशेषज्ञता, जाति पंचायतें, शारीरिक और सामाजिक अलगाव और भेदभाव, सीमित सामाजिक और व्यावसायिक गतिशीलता शामिल हैं। स्वतंत्रता के बाद, जाति कारक ने चुनावी राजनीति, सार्वजनिक वस्तुओं तक पहुंच और प्रतिनिधित्व को प्रभावित किया है।
राजनीतिक लाभ के लिए जातिगत पहचान को स्पष्ट रूप से लामबंद किया गया है। सदियों से चले आ रहे प्रणालीगत भेदभाव के जवाब में सरकार ने हाशिए पर पड़े समुदायों के उत्थान के लिए सकारात्मक नीतियां, विशेष रूप से शिक्षा और रोजगार में आरक्षण लागू किया। हालांकि इन उपायों का उद्देश्य सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना है, लेकिन योग्यता और सामाजिक सामंजस्य पर उनके प्रभाव को लेकर बहस जारी है। व्यापक जाति जनगणना कराने के हाल के फैसले ने इन चर्चाओं को और तेज कर दिया है, जिससे समानता और उत्कृष्टता के बीच संतुलन की फिर से जांच करने की जरूरत महसूस हो रही है। ऐतिहासिक संदर्भ में, स्वतंत्रता के बाद भारत ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों द्वारा सामना किए गए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने की आवश्यकता को पहचाना।
संविधान ने उनके पर्याप्त प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण की सुविधा प्रदान की। 1980 में मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश करते हुए इन लाभों को अन्य पिछड़ा वर्ग तक बढ़ा दिया। 2019 में, सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशतआरक्षण लागू किया गया, जिससे कुल आरक्षण पहले से निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक हो गया। योग्यता बनाम सामाजिक न्याय एक निरंतर बहस का विषय रहा है। आरक्षण नीति के समर्थकों ने तर्क दिया है कि आरक्षण सदियों से चले आ रहे उत्पीड़न को ठीक करने और हाशिए पर पड़े समुदायों को उन अवसरों तक पहुंच प्रदान करने के साधन के रूप में काम करता है, जो पहले उन्हें नहीं दिए गए थे। सकारात्मक कार्रवाई विविधता और समावेश को बढ़ावा देती है और शैक्षिक संस्थानों और कार्यस्थलों में अधिक विविध वातावरण की सुविधा प्रदान करती है, जिससे अनुभव और दृष्टिकोण समृद्ध होते हैं। इसके विपरीत, आलोचकों का तर्क है कि आरक्षण में योग्यता को खत्म करने की क्षमता है। यह योग्यता-आधारित चयन से समझौता कर सकता है, जिससे अकुशलता और कम मानक हो सकते हैं। वे यह भी चेतावनी देते हैं कि आरक्षण जातिगत पहचान को कायम रख सकता है।
जाति श्रेणियों को संस्थागत बनाकरए आरक्षण अनजाने में जाति विभाजन को खत्म करने के बजाय उन्हें मजबूत कर सकता है। इसके अलावा, आलोचकों को क्रीमी लेयर की चिंता है। यह तर्क दिया गया है कि आरक्षित श्रेणियों के भीतर, लाभ अक्सर अधिक संपन्न लोगों को मिलते हैं, जबकि सबसे वंचित लोग अभी भी हाशिए पर हैं। आरक्षण के समर्थकों का तर्क है कि आरक्षण कोई दान नहीं है। यह प्रतिनिधित्व और न्याय के लिए एक संवैधानिक साधन है, न कि कल्याणकारी अनुदान और यह सदियों से चली आ रही संरचनात्मक बहिष्कार की समस्या को संबोधित करता है। यह जाहिर है कि उच्च जातियां अभी भी शीर्ष सरकारी पदों, कॉर्पोरेट नेतृत्व और शिक्षा जगत पर हावी हैं। वे योग्यता के तर्क को त्रुटिपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार, योग्यता की धारणा जाति-तटस्थ है, उनका तर्क है कि उच्च जातियों को पीढ़ीगत विशेषाधिकार, बेहतर स्कूली शिक्षा, धन और सामाजिक पूंजी का लाभ मिलता है। उनके विचार में, योग्यता सामाजिक रूप से निर्मित होती है और लाभ जाति की तरह ही विरासत में मिलता है।
योग्यता की तुलना में सामाजिक न्याय, समानता और स्वतंत्रता किसी राष्ट्र के लिए अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं। औपनिवेशिक शासक निश्चित रूप से कई मायनों में योग्यता के मामले में हमसे कहीं अधिक श्रेष्ठ थे। केवल योग्यता के तर्क से तो उनका शासन उचित होता! वे यह भी चेतावनी देते हैं कि क्रीमी लेयर पर अत्यधिक ध्यान आरक्षण के संरचनात्मक इरादे को कमजोर करता है। दूसरा पक्ष तर्क देता है कि आरक्षण हाशिए के समुदायों की क्रीमी लेयर को लाभ पहुंचाता है और सबसे अधिक हाशिए पर पड़े लोगों की जरूरतों को पूरा करने में विफल रहता है। ऐतिहासिक और प्रणालीगत असमानता को संबोधित करना किसी भी राष्ट्र के लिए एक अत्यधिक जटिल एवं चुनौती पूर्ण कार्य है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका ने गुलामी को समाप्त करने और समान अधिकार देने तथा अश्वेत लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए संवैधानिक संशोधन, सकारात्मक कार्रवाई और ऐतिहासिक न्यायिक घोषणा सहित कई कदम उठाए।
स्वतंत्रता के बाद, हमारे देश में भी कई ऐतिहासिक पहल की गई हैं, जिनमें अस्पृश्यता का उन्मूलन, पिछड़े और कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक अवसरों और नौकरियों का आरक्षण और कई अन्य सकारात्मक कार्यक्रम शामिल हैं। पिछड़े वर्गों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने के लिए इसका परिणाम निस्संदेह उल्लेखनीय और प्रभावशाली रहा है। भारत में जाति व्यवस्था कोई छिपी सच्चाई नहीं है-यह एक स्थाई सामाजिक वास्तविकता है, जो शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक पहुंच को आकार देती है। 1,200 से ज्यादा अनुसूचित जातियां और 5,000 से ज्यादा ओबीसी जातियां पहले से ही आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त हैं। जाति जनगणना केवल वही दर्ज करेगी, जो पहले से ही स्पष्ट है, नए विभाजन पैदा नहीं करेगी। ऐसी जनगणना से समाज में विभाजन की आशंकाएं गलत हैं। राजनेताओं और पार्टियों के पास चुनावी रणनीति के लिए जातिगत जनसांख्यिकी की स्पष्ट तस्वीर पहले से ही है। लेकिन नीति को दिशा देने और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए पारदर्शी, आधिकारिक आंकड़ों एवं सूचना की कमी है।
जाति को नजरअंदाज करने से यह मिट नहीं जाती। उचित जनगणना के जरिए इसे स्वीकार करना हाशिए पर पड़े समुदायों की जरूरतों को पूरा करने और ज्यादा न्यायसंगत भारत बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। जाति जनगणना सिर्फ मौजूदा और देखी जा सकने वाली सामाजिक वास्तविकता का दस्तावेजीकरण करेगी। यह उन जगहों पर विभाजन पैदा नहीं करेगी जहां कोई विभाजन नहीं है। बल्कि, यह सार्वजनिक क्षेत्र में पहले से चल रही चीजों को रिकॉर्ड में लाएगी।
-जे.सी. मोहंती
पूर्व आईएएस
यह लेखक के अपने विचार हैं।
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