वर्तमान में महावीर के सिद्धांतों की प्रासंगिकता
मनुष्य स्वयं अपना कर्ता
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ थे एवं अन्तिम 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर है।
जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ थे एवं अन्तिम 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर है। तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के मोक्ष चले जाने के कुछ वर्षों के बाद भारत वर्ष में अनेक मत-मतांतर प्रचलित हो गए थे। उस समय मनुष्य भ्रांतिवश स्वर्ग प्राप्ति के लोभ में जीवित पशुओं को यज्ञ में बलि देते थे। बौद्ध धर्म की क्षणिक वादिता को अपना कर मन में संताप कर रहे थे। धर्म को अलग अलग तरीके से परिभाषित किया जा रहा था। मिथ्यात्व का तिमिर घर कर गया था। ऐसे समय में कल्याण का मार्ग दिखाने वाले किसी उद्धारक की नितांत आवश्यकता थी। सृष्टि का क्रम जन मानस की आवश्यकतानुरूप हुआ करता है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए स्व-पर के कल्याण मार्ग प्रशस्तक के रूप में सोलहवें अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान से इंद्र का इस धरा पर वर्धमान नाम से अवरोहण हुआ, जिन्हे तीर्थंकर महावीर के नाम से भी जाना जाता है। भगवान महावीर का जन्म 599 ई.पूर्व क्षत्रीय कुण्डाग्राम वैशाली वर्तमान बिहार में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम रानी प्रियकारिणी था। महावीर के जन्म के साथ ही राज्य समृद्ध होने लगा, इसे देखते हुए बालक का वर्धमान नाम रखा गया। गजशाला के एक मदोन्मत्त हाथी को वश में करने पर अतिवीर कहलाए।
संगम देव द्वारा भयंकर सर्प का रूप धारण कर वर्धमान की शूरवीरता की परीक्षा ली गईं। सर्प को वश में कर लेने पर महावीर के नाम से जाने जाने लगे। महावीर जन्म से ही आमजन के हितार्थ कार्यों में लग गए थे। उनकी समझ तो बाल्यकाल से ही अद्भुत थी। वे इस संसार को निस्सार मानते हुए भोगों में कभी प्रवृत्त नहीं हुए और आत्म चिंतन में लीन रहने लगे। वे माता पिता को अपने प्रयोजन से संतुष्ट करने के बाद तीस वर्ष की अवस्था में ही गृह त्याग कर वन की ओर प्रस्थान कर आत्म ध्यान में लीन हो गए। लगातार 12 वर्ष 5 माह एवं 15 दिन तक तप, संयम एवं साम्यभाव की साधना की, पंच महाव्रत आत्मसात किया। महावीर एक दिन जुकूला नदी के किनारे आत्म ध्यान में लीन थे तब घातिया कर्मो का नाश कर वैशाख शुक्ला दशमी के दिन सम्पूर्ण ज्ञान, केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। महावीर ने 30 वर्षों तक देश के विविध अंचलों में पद विहार कर संत्रस्त मानवता के कल्याण हेतु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य धर्म को आम जन में प्रसारित किया। पूर्णज्ञानी योगी भगवान महावीर ने वैदिकी हिंसा-कर्मकांड, पशुबलि तथा अन्य कुरुतियों को बंद कराया। भगवान महावीर धर्म का प्रचार करते करते पांवापुर आए, वहां योग-निरोध कर आत्मध्यान में लीन हो विराजमान हो गए। कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन प्रातकाल के समय 72 वर्ष की अवस्था में, ईसा से 527 वर्ष पूर्व निवार्ण प्राप्त किया। भगवान महावीर एक विलक्षण-सम्पूर्ण जीवन दृष्टा थे। उन्होंने कर्म सिद्धांत को अपनाया, कर्म करने पर जोर दिया। उन्होंने कर्म की प्रधानता की अवधारणा को जागृत किया। यह संदेश दिया कि मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। स्व कल्याण के लिए व्यक्ति स्वयं सक्षम है।
मानव जीवन में पूर्णता प्राप्त करने की क्षमता होती है। यह संदेश दिया कि हमारे सुख-दुख के लिए हम स्वंय जिम्मेदार हैं। हमारे द्वारा किए गए कर्मों का फल हमें स्वयं ही भोगना है। पूर्व जन्मों के कर्मों का फल हमें इस जन्म में एवं इस जन्म के कर्मों का फल अगले जन्म में भुगतना पड़ता है। इन सब से मुक्ति का उपाय हम सभी के पास है। अपनी शक्ति का पूर्ण उपयोग करके कर्मों के क्षय द्वारा हम आवागमन से मुक्त हो सकते है। महावीर ने कर्म सिद्धांत के द्वारा आम जन में आत्म विश्वास जगाया। ईश्वर की सत्ता की जगह हम सब में ईश्वर बनने की क्षमता का संचार किया।
मनुष्य स्वयं अपना कर्ता है। यह सृष्टि अनादि, अनंत है एवं कर्म सिद्धांतो पर चलती है। महावीर ने बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक जीव और आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग बताया। गुणों की अपेक्षा से पूर्ण विकसित आत्मा ही परमात्मा है।अन्य किसी भी धर्म में मनुष्य को अपने कर्म फल प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं दिया है। भगवान महावीर ने सांसारिक सुख की प्राप्ति एवं साथ ही मोक्षमार्ग पर चलने हेतु श्रावकों को पंच अणुव्रत एवं श्रमणों को पंच महाव्रत के सिद्धांत अपनाने पर जोर दिया। स्व कल्याण के साथ, जन कल्याण एवं विश्व कल्याण भी संभव है। भगवान महावीर ने अहिंसा के सूक्ष्मतम रूप का व्यापक विश्लेषण किया है। अहिंसा को जीवन शुद्धि का आधार बताया है। अहिंसा परमो धर्म अहिंसा ही महान धर्म है। महावीर के जीओ और जीने दो के सूत्र में बहुत ही गूढ़ अर्थ छिपा हुआ है। यह कथन आत्म-साक्षात्कार और सार्वभौमिकता का प्रतीक है। एक मात्र इसी सिद्धांत की पालना से हम विश्व बंधुत्व की परिकल्पना साकार कर सकते है।
-भागचंद जैन
यह लेखक के अपने विचार हैं।
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