प्राकृतिक असंतुलन पर ध्यान केंद्रित करे मनुष्य

पूरी दुनिया में विनाश लीला रचने में लगा हुआ 

प्राकृतिक असंतुलन पर ध्यान केंद्रित करे मनुष्य

20 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के रामबन जनपद में सूर्योदय से पहले हुई तीव्र वर्षा के कारण अनेक स्थानों पर बाढ़ आ गई।

प्राकृतिक असंतुलन समानांतर रूप में देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में विनाश लीला रचने में लगा हुआ है। 20 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के रामबन जनपद में सूर्योदय से पहले हुई तीव्र वर्षा के कारण अनेक स्थानों पर बाढ़ आ गई। बाढ़ की घटनाओं में तीन लोगों की मृत्यु हो गई और बाढ़ में फंसे सौ से अधिक लोगों को किसी प्रकार सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया। जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित नाशरी और बनिहाल के बीच बारह से अधिक स्थानों पर भूस्खलन, मृदाधंसाव और भारी पत्थर गिरने-लुढ़कने की घटनाएं हुईं। इन प्राकृतिक बाधाओं द्वारा राजमार्ग पर दोनों ओर का यातायात अवरुद्ध हो गया। ढाई सौ किलोमीटर लंबे राजमार्ग के बंद होने के कारण इस पर सैकड़ों यात्री और वाहन चालक फंस गए, जहां वर्षा के कारण पर्वत धंसाव हुआ है वह स्थान कैला मोड़ के नाम से जाना जाता है। 

सुरंग सहित लगभग तीन किलोमीटर राजमार्ग की पृष्ठभूमि में स्थित पूरा पर्वत भरभराकर धंस गया। इसके बाद राजमार्ग का दूसरा हिस्सा धंसाव के बाद बहे पर्वतों के मलबे के साथ सरपट खाई में बदल गया है। घटना के चलचित्र देखकर प्राकृतिक आपदा की गंभीरता भलीभांति समझी जा सकती है। जलवायु की निरंतर विकृत एवं विनाशक होती स्थितियों की भी हमारे द्वारा अनदेखी की जा रही है। दुर्घटना के बाद कुछ दिनों के लिए स्थितियां सामान्य होते ही हम पिछला सब कुछ भूल जाते हैं और जलवायु असंतुलन के कारण एक नई दुर्घटना घट जाती है। विगत कई दशकों से हिमालयी पर्वत क्षेत्र में यही हो रहा है। जम्मू-कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश और फिर उत्तराखंड तक की पूरी पर्वतीय श्रृंखला अपने स्वरूप से विलग हो चुकी है। विद्युत उत्पादन के लिए बांधों के निर्माण, पर्यटन में वृद्धि हेतु रहने-घूमने की संरचनाओं के निर्माण और इन निर्माण परियोजनाओं को पूरा करने व पूरा होने के बाद इनके भोगोपभोग के लिए इन तक जाने-पहुंचने हेतु मार्गों के निर्माण के कारण पर्वतों की प्राकृतिक शक्ति समाप्त हो चुकी है। 

पर्वतों पर विकास के परिणामस्वरूप बढ़े आवागमन, भारी मोटर वाहनों के चालन-परिचालन और तरह-तरह की संरचनाएं खड़ी करने के लिए विस्फोटकों की सहायता से तोड़े गए पर्वतीय पठार पारस्परिक नैसर्गिक पर्वत बंधन से मुक्त हो चुके हैं। विभिन्न पर्वतीय भाग अब पारस्परिक अवलंबन की अवस्था से पृथक हो चुके हैं। इसीलिए उनमें अत्यधिक या तीव्र वर्षण का भार वहन करने का शक्तिगुण नहीं बचा। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरखंड में माह डेढ़ माह के अंतराल में कोई न कोई प्राकृतिक विपदा घट ही रही है। यह घटनाक्रम तीन-चार दशकों से निरंतर चला आ रहा है और विगत दस-पंद्रह वर्षों में तो ऐसी घटनाएं भयंकर रूप में घटी हैं। जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तराखंड तक परिव्याप्त हिमालयी गिरिमाला पर आधुनिक विकास के कारण पड़नेवाले जो भी प्रतिकूल प्रभाव हैं, वे पर्वतों के सबसे ढलान वाले अंशों पर अधिक हैं।

उत्तराखंड में सर्वाधिक पर्वत-विचलन हुआ है। इसके बाद उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर के बीच स्थित हिमाचल प्रदेश में अधिक पर्वतीय अस्थिरताएं हो रही हैं। पर्वतों के सर्वाधिक निचले और मध्य भाग में दीर्घ समय तक होनेवाले ऐसे विचलनों व अस्थिरताओं के कारण एक दुर्भाग्यशाली दिन वह भी आएगा, जब जम्मू-कश्मीर में स्थित हिमालय का सर्वोच्च शिखर जलवायु असंतुलन का अकल्पनीय विनाश झेलेगा। क्या इससे सुरक्षित रहने के लिए भारत और हिमालय पट्टिका के दोनों ओर स्थित देशों की कोई तैयारी है संभवत कोई तैयारी नहीं है और ना ही हो सकती है। अर्थव्यवस्था बढ़ाने पर केंद्रित दुनिया हर संभव औद्योगिक व भौतिक अनुसंधान कर देना चाहती है। चाहे इसके लिए समग्र पृथ्वी की पूरी प्रकृति ही ध्वस्त क्यों न हो जाए। कुछ देश तो इस संबंध में दिखावटी चिंता भी नहीं कर रहे। वे तो निर्मम आधुनिकता पर सवार होकर पृथ्वी से अंतरिक्ष तक विस्तारित क्षेत्र को वैज्ञानिक प्रयोगों से इस सीमा तक अप्राकृतिक कर चुके हैं कि संवेदनशील व्यक्ति को यदि आंख उठाकर आकाश की नीलिमा देखने की इच्छा होती है तो वायुमंडल में पसरी हुई मटमैली कुरूपित धुंध उसे दुखित आहें भरने को ही विवश करती है। 

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धरती का समशीतोष्ण स्वभाव क्या होता है, ऋतुएं क्या होती हैं, मौसम क्या होता है, सुहावना मौसम क्या होता है, ऋतुओं का स्वाभाविक स्वरूप व सौंदर्य क्या होता है, वातानुकूलित पृथ्वी पर खुले-नीले व्योम के नीचे स्वस्थ श्वास क्या होती है, पेड़-पौधों की छायाएं, खेती-बाड़ी, कृषिकर्म, वन्यक्षेत्र इत्यादि प्राकृतिक जीवन परिस्थितियां क्या होती हैं, यह सभी विचार धीरे-धीरे मनुष्य के मशीनी जीवन से समाप्त हो रहे हैं। आनेवाले समय में इस बारे में सोचने-विचारने की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही मनुष्य में न हो, क्योंकि कठोर आधुनिकता और तकनीकी-प्रौद्योगिकी जीवनशैली उसे यह सब सोचने-विचारने योग्य छोड़ेगी ही नहीं। इस बारे में सभी को गंभीर चिंतन-मनन करना होगा। 

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-विकेश कुमार बडोला
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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