अध्यात्म का हमारे जीवन में महत्व
अध्यात्म का महत्व संसार की महानतम उपलब्ध्यिों में सबसे ऊंचा हैं
भारतीय संस्कृति, जीवन का सर्वोपरि लाभ अध्यात्म को मानती है।
भारतीय संस्कृति, जीवन का सर्वोपरि लाभ अध्यात्म को मानती है। अध्यात्म का महत्व संसार की महानतम उपलब्ध्यिों में सबसे ऊंचा है, उसका लाभ सृष्टि के समस्त लाभों से अधिक है। संसार में मनुष्य ने पशुत्व की कोटि से ऊपर उठकर देवत्व की ओर जो प्रगति की है, आत्मा की अनंत शक्तियों का जो भंडार खोला है उसका कारण आध्यात्मिक उन्नति ही है। भारतीय अध्यात्मवाद कहता है, हे अविनाशी, शक्तिशाली आत्माओं! तुम शरीर में आत्मा हो। तुम्हें किसी प्रकार की अशक्तता का अनुभव नहीं करना है। तुम अनंत शक्तिशाली हो, तुम्हारे बल की सीमा नहीं है। जिन ताकतों को लेकर तुम पृथ्वी पर आए हो, वे अचूक ब्रह्माण्ड हैं। तुम्हारी शक्तियां इन्द्र के वज्र से अध्कि हैं। सफलता और आनंद तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उठो, अपने आत्म-स्वरूप को, अपने हथियार को भली-भांति पहचानों और अपने कर्तव्यपथ पर चल पड़ो। तुम कल्पवृक्ष हो, तुम पारस हो, तुम अमृत हो, तुम शरीर नहीं, जीवन नहीं, मरणशील नहीं वरन् आत्मा हो। तुम इन्द्रियजन्य विकारों के गुलाम नहीं हो, तुम्हें गलत काम करने के लिए आदतें बाध्य नहीं कर सकतीं। पाप या अज्ञान में इतनी शक्ति नहीं कि वे तुम्हारे ऊपर शासन कर सकें।
तुम्हें अपने आपको दीन-हीन, नीच, पतित तथा पराधीन नहीं समझना चाहिए। हे महानपिता के महानपुत्रों! तुम अपनी महानता को पहचानों। उसे समझने-खोजने और प्राप्त करने में जुट जाओ। तुम सत् हो। तुम चित् हो, तुम आनंद हो। अपनी वास्तविकता का अनुभव करो। स्वाधीनता का, मोक्ष का आनंद प्राप्त करो।’भारतीय अध्यात्मवाद हमेंआत्मविश्वास करना सिखाता है। अपनी आत्मा का सम्मान करना सिखाता है। अपनी सत्ता का सम्मान करना सिखाता है। अपनी सत्ता को श्रेष्ठ, पवित्र, महान एवं विश्वसनीय अनुभव करना सिखाता है। आत्मा अमर है, जीव शरीर से भिन्न है। वह शरीर के साथ ही नहीं मर जाता है वरन् मृत्यु के उपरान्त भी जीवित रहता है और नया शरीर धारण करता है। हम सबके शरीर में आत्मा का वास है। सर्वभौम चैतन्य तत्व परमात्मा अविनाशी है फिर उसके परमाणु का नाश कैसे हो सकता है? जब तक सूर्य है तब तक गर्मी है। इसी प्रकार परमात्मा का अंश भी अमर है। मरता तो यह शरीर है जो क्षण भंगुर है, शरीर आत्मा का चोला है। परिधान वस्त्र है, शरीर से आत्मा का दर्जा ऊंचा है। आत्मा का अध्ययन ही अध्यात्म है। मैं कौन हूं? मैं कहां आया हूं? मैं इस धरती पर क्यों आया हूं? मैं किसलिए आया हूं? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? इन सभी प्रश्नों को जान लेना और उसी के अनुरूप कार्य करना ही अध्यात्म है। प्राणिमात्रा के प्रति जिसके मन में वैर-भावना नहीं है, जो मित्रता से युक्त है और जिसके अन्दर दुखी प्राणियों के प्रति दया की भावना है-ये जिसने अपना लिए हैं, परमात्मा के प्यारे बन्दों में उसका नाम आएगा। जिसने इस चीज को महसूस कर लिया उसकी पूरी कोशिश यह रहेगी कि संसार में वैर लेकर नहीं जीना, प्राणिमात्रा के प्रति किसी के प्रति भी वैर नहीं, तो समझिए कि आपके अन्दर आध्यात्मिकता उतर आई। आध्यात्मिक हो जाने का मतलब है कि व्यक्ति प्रेमपूर्ण हो जाय, घृणा से मुक्त हो जाय, क्रोधरहित हो, निन्दा-चुगली और आलोचना से ऊपर उठ जाए। लेकिन अगर धार्मिक स्थल पर लोग अपनी निन्दा-चुगली का कार्यक्रम वहां प्रस्तुत करें, तरह-तरह की आलोचना या निंदा का स्वरूप लेकर घर वापस आएं, तो इसकामतलब है, हमने मन्दिर को भी मन्दिर नहीं रहने दिया, पवित्र स्थल को भी पवित्र नहीं रहने दिया, हमने अपनी गंदगी वहां भी जाकर बिखेर दी। लबों से भले ही कितना भी नाम जपा हो, लेकिन हृदय से नहीं जपा। कहने के लिए और दिखावे के लिए हम कितने भी भक्त रहे हों, लेकिन सच्ची भक्ति से हमारा कोई तालमेल है ही नहीं उसमें वैसे तो हर आदमी के चेहरे पर वह क्या है, और कैसा है उसका स्वरूप, उसकी कहानी छपी हुई है।
मैं कई-कई चिन्तकों को देखता हूं, जिनके चेहरे पर कोई लावण्य नहीं, कोई प्रसन्नता नहीं, कोई शांति नहीं, लेकिन बातें बहुत शांति की हैं। इसका मतलब है चेहरे पर वह बात आ नहीं पाई। वास्तव में चेहरे पर बात वही है जो अन्दर है। कुछ बातें इसलिए रटी हैं कि दूसरों को समझाई जा सकें और रोब जमाया जा सके। तो इसका मतलब है कि अन्धेरे में हैं, हर आदमी, हर पंथ वाला, हर सम्प्रदाय वाला, अपने-आपको इतना सही करने की कोशिश करता है कि बस में ही सही हूं, बाकी सब गलत है। मेरे ही रास्ते से भगवान मिल सकता है, बाकी के रास्ते से तो मिलने वाला नहीं। शायद भगवान ने ही उसको कोई नक्शा बनाकर दिया होगा कि इसी रास्ते से चलना और इसी रास्ते से चलते-चलते बात बन जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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