वायु प्रदूषण से जीना हो रहा मुश्किल  

प्रदूषण का जहर थमने का नाम नहीं ले रहा 

वायु प्रदूषण से जीना हो रहा मुश्किल  

हालात की भयावहता का सबूत यह है कि प्रदूषण के मामले में हमारा देश और देश की राजधानी दिल्ली दुनिया में कीर्तिमान स्थापित कर चुकी है।

देश और देश की राजधानी दिल्ली से प्रदूषण का जहर थमने का नाम नहीं ले रहा है। हालात की भयावहता का सबूत यह है कि प्रदूषण के मामले में हमारा देश और देश की राजधानी दिल्ली दुनिया में कीर्तिमान स्थापित कर चुकी है। वह चाहे पहाड़ हो या मैदानी इलाका, तराई का इलाका हो या देश का समुद्री तटीय इलाका, कोई भी प्रदूषण की मार से अछूता नहीं रहा है। देश में हवा अब इतनी प्रदूषित है, जिसकी वजह से सांस लेना भी दूभर हो गया है। देश की शीर्ष अदालत ने भी इस बाबत गंभीर चिंता व्यक्त की है। हालात इतने खराब हैं कि अगर उस माहौल में आपने सांस भी ले ली तो निश्चित मानिए कि आप गंभीर प्रदूषण से फेफड़े, हृदय, धमकियों में खून का थक्का जमने, ब्रेन स्ट्रोक, विटामिन डी के घटते स्तर से हृदय सम्बन्धी रोगों के जोखिम से बच नहीं  सकते। यही नहीं इससे मानसिक रोगों का खतरा भी बढ़ गया है।

स्कॉटलैंड की यूनिवर्सिटी आफ सेंट एण्ड्रयूज द्वारा किए शोध से यह खुलासा हुआ है कि वायु प्रदूषण से हवा में मौजूद दूषित कणों के दिमाग पर हमला करने से  छात्रों में पढ़ाई संबंधी परेशानियों और जीवन की चुनौतियों से निपटने की क्षमता लगातार कम हो रही है। जहरीली हवा हर साल देश में होने वाली करीब 15 लाख लोगों की जान ले रही है। इसके चलते इंसान की उम्र 11.9 साल कम हो गई है। मौसम में आ रहा बदलाव इसका अहम कारण है। इसके लिए इंसानी गतिविधियां ही प्रमुख रूप से जिम्मेंदार हैं, जो इंसानों पर ही भारी पड़ रही हैं। बढ़ते तापमान और वायु प्रदूषण पर समय रहते अंकुश नहीं लगाया गया तो इससे हर साल दुनिया में करीब तीन करोड़ लोग असमय मौत के मुंह में चले जाएंगे।

वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि ऐसे ही हालात रहे तो वार्षिक मृत्यु दर सदी के अंत तक अनियंत्रित हो सकती है और दुनिया की 20 फीसदी आबादी गंभीर स्वास्थ्य जोखिम का सामना करेगी। उत्तर भारत के शहरों में आवासीय इलाकों और परिवहन से सबसे अधिक प्रदूषण फैल रहा है, जबकि पश्चिमी भारत में उद्योग और ऊर्जा क्षेत्र प्रदूषण के लिए जिम्मेंदार है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पी एम 2.5 को लेकर जो मानक बनाया है, उसके अनुसार भारत की हवा 5 गुणा ज्यादा खराब है। इनमें परिवहन, घर, जंगलों की आग और उद्योगों में जलाए जाने  वाले जीवाश्म ईंधन और बायोमास की प्रमुख भूमिका है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि प्रत्येक क्यूबिक मीटर हवा में पी एम 2.5 में हर 10 माइक्रोग्राम की बढ़ोतरी से रोजाना मृत्यु दर में 1.42 फीसदी की वृद्धि हो रही है।

वायु प्रदूषण से मरने वालों में देश की राजधानी दिल्ली सर्वोच्च स्थान पर है। हकीकत में बढ़ता प्रदूषण जहां पर्यावरणीय चुनौतियों को और भयावह बना रहा है, वहीं आबादी के लिए स्वास्थ्य संबंधी जोखिम बढ़ाने में भी अहम भूमिका निबाह रहा है। इसके बढ़ने से धुंध छाने, साफ  न दिखाई देने, सांस के रोगों, गले में खराश होने की  बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। वायु प्रदूषण अब नासूर बन गया है। यह अब किसी खास मौसम की नहीं, बल्कि साल भर रहने वाली स्थाई समस्या बन चुकी है। यदि प्रदूषण का वर्तमान स्तर बरकरार रहता है, तो इस आबादी की जीवन प्रत्याशा में ड्ब्ल्यू एच ओ के दिशा निर्देश के सापेक्ष औसतन आठ वर्ष व राष्ट्रीय मानक के सापेक्ष 4.5 वर्ष की कमी का खतरा है। यदि आप वायु प्रदूषण के बीच दो घंटे से अधिक समय भी रह लेते हैं तो इससे मस्तिष्क की फंक्शनल कनेक्टिविटी कम हो जाती है। अब तो यह साफ  हो गया है कि जिस तरह से वायु प्रदूषण का मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव पड़ता है, उसी तरह जंगल की आग से निकलने वाले धुंए का भी स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। सबसे जरूरी तो यह है कि लोगों को भी इस बात को लेकर सचेत रहना चाहिए कि वह किस तरह की हवा में सांस ले रहे हैं और वाहनों के धुंए जैसे नुकसानदायक वायु प्रदूषकों को कम करने के क्या उपाय किए जा रहे हैं या नहीं।

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इस बाबत जागरूकता बेहद जरूरी है। साथ ही लोगों को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वह मोटर साईकिल से या पैदल जाते समय कम व्यस्त सड़क पर ही चलें। यह सावधानी हमें काफी हद तक राहत दिलाने में मददगार हो सकती है। इसमें वित्तीय संसाधनों की कमी और राजनीतिक दलों के आपसी टकराव तथा राज्य सरकारों के बीच समन्वय की कमी प्रमुख बाधा है, हमारे यहां अक्सर  खतरनाक स्तर पर पहुंच चुके वायु प्रदूषण पर अंकुश के लिए किए जाने वाले ग्रेप जैसे तात्कालिक आपात उपाय  केवल प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम कर सकते हैं। निष्कर्ष यह कि वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य के लिए अब सबसे बड़ा पर्यावरणीय खतरा बन चुका है। नीति निर्माताओं द्वारा इस मामले पर व्यापक स्तर पर विचार करना बेहद जरूरी है तभी कुछ बदलाव की उम्मीद संभव है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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