जानें राज-काज में क्या है खास

मामला कैसे उलटता नजर आ रहा है

जानें राज-काज में क्या है खास

सब कुछ समझ में आ जाएगा। सीनियर्स को तो जो करना था, कर लिया, अब थप्पड़ खाकर चुपचाप काम करने में ही भलाई है।

थप्पड़ और उसकी गूंज
पिछले दिनों सूबे में हुए थप्पड़ कांड की गूंज को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हंै। बातें हो भी क्यों न, चूंकि मामला राज का काज करने वालों से जुड़ा है। थप्पड़ मारने वाले भाई साहब इस मामले में एक्सपीयरेंस भी रखते हैं। लेकिन थप्पड़ के बाद जो कुछ हो रहा है, उसकी गूंज कुछ ज्यादा ही है। यूथ ब्यूरोक्रेट्स की समझ में नहीं आ रहा कि मामला कैसे उलटता नजर आ रहा है। अब इन यूथ ब्यूरोक्रेट्स को कौन समझाए कि हर बार वो ही होता है, जो उपर वालों की मंशा होती है, नहीं मानो तो पुराने इतिहास की तरफ झांक लो, सब कुछ समझ में आ जाएगा। सीनियर्स को तो जो करना था, कर लिया, अब थप्पड़ खाकर चुपचाप काम करने में ही भलाई है।

चर्चा में नया फार्मूला
जब कोई भी नया फार्मूला अपनाता है, तो उसकी चर्चा हुए बिना नहीं रहती, चाहे वो राजनीति से ताल्लुकात रखता हो, या फिर ब्यूरोक्रेसी से। पिछले दिनों एसेम्बली के लिए हुए उप चुनावों में शेखावाटी की एक हॉट सीट पर चुनाव लड़े भाई साहब ने इलेक्शन मैनेजमेंट के लिए नया फार्मूला अपनाया, तो खुद की पार्टी के लोगों का भी हाजमा बिगड़ गया। भाई साहब अपना इलेक्शन मैनेजमेंट प्रवासी राजस्थानियों के हाथो सौंप कर खुद चैन की नींद में सो गए। जिन भाई लोगों के हाथों में मैनेजमेंट सौंपा, वो पैसे वाले वर्ग से ताल्लुकात रखते हैं। अब कहने वालों का मुंह तो पकड़ा नहीं जा सकता, मगर भाई साहब के शानदार इलेक्शन मैनेजमेंट की चर्चा सरदार पटेल मार्ग स्थित बंगला नंबर 51 में बने भगवा वालों के ठिकाने पर भी हुए बिना नहीं रही।

वे 21 बढ़िया थे
हाथ वाली पार्टी में इन दिनों कामकाज का आकलन किया जा रहा है। आकलन कमल वालों से नहीं बल्कि अपनों से हो रहा है। इंदिरा गांधी भवन में बने हाथ वालों के ठिकाने पर आने वाले हार्ड कोर वर्कर्स में चर्चा है कि इन के बजाय 11 साल पहले वे 21 बढ़िया थे, जो मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका में थे। सरकार पर हर मोर्चे पर विफलता का आरोप लगाकर सड़कों पर उतरते थे। अब हालत उलटे हंै। सरकार की कमियों के बजाय खुद की पार्टी की जड़ काटना अपनी कर्त्तव्य समझ रहे हैं।

दिल है कि मानता नहीं
दिल तो दिल ही होता है। मान जाए, तो ठीक है, नहीं माने तो उस पर किसी का वश नहीं होता। हाथ वाली पार्टी में विधानसभा के उप चुनावों के लिए उच्च स्तर पर दिल मिलाने की लाख कोशिशें की गईं, लेकिन दिल केवल टिकट बांटने तक राजी हुआ। मैदान में प्रचार-प्रसार के लिए कई भाई साहबों के दिल कतई तैयार नहीं हुए। अस्पताल रोड पर बने वार रूम में चर्चा आम है कि दिलों में अभी भी दरार है। समझौता केवल दिखावटी है। दिल नहीं मिलने से वोटर भी मझदार में है। उन्होंने भी बिना दल वालों से दिल मिलाने की ठान ली है।

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अब लड़ाई पतंग-डोर की
राजनीति में कई तरह के दांवपेच होते हैं। सूबे के कई नेता इसमें महारत हासिल किए हुए हैं। कुछ दिनों पहले हाथ वाले नेताओं ने उप चुनावों में कमल वालों की पतंग काटने का ऐलान किया था। लेकिन अटारी वाले भाई साहब तो एक कदम आगे निकले और लेक्चर दे डाला कि जिनके हाथों में डोर ही नहीं है, वो भला पतंग कैसे काटेंगे। पतंग और डोर दोनों हमारी है।

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चांस ब्रेक लगने के
आजकल राज का काज करने वाले भाई लोगों के दिलों में एक डर बैठा हुआ है। लंच टेबिल पर कभी कभार वह जुबान पर आ जाता है। मामला भी गाड़ियों से जुड़ा है। अटारी वाले भाई साहब कभी भी 21 साल पहले किए पुराने राज के एक फैसले का फरमान जारी कर सकते हैं।  अब दस गुणा ज्यादा बढ़ चुकी सरकारी गाड़ियों की स्पीड  पर मितव्ययता की आड़ में  ब्रेक लगाने के चांस कुछ ज्यादा ही हैं।

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तलाश तोड़ की
आजकल राज की कुर्सी संभाल रहे भाई साहब एक चीज का तोड़ तलाशने में जुटे हैं। तोड़ भी हल्का नहीं है। सुशासन में रोड़ा बन रहे डिजायर सिस्टम को रोकने का तोड़ जानने के लिए सीएमओ में आने-जाने वालों से राय ली जा रही है। बदलियों में डिजायर सिस्टम के चलते सुशासन संभव नहीं है। राज का काज करने वाले भी तोड़ ढूंढने में लगे हैं। लंच केबिन में चिंता व्यक्त की जा रही है कि सूबे के राजा की मंशा तो साफ है, लेकिन वजीरों की सोच के आगे बेबस हैं।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)

Tags: Politics

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