बेहद गंभीर दौर से गुजर रहा है समूचा हिमालय
मौसमी बदलाव
आज समूचा हिमालयी क्षेत्र पारिस्थितिकी संकट से जूझ रहा है।
आज समूचा हिमालयी क्षेत्र पारिस्थितिकी संकट से जूझ रहा है। दरअसल पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय परिस्थितिजन्य स्थितियों से जुड़ा संकट मौजूदा हालात में केवल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि समूचा हिमालयी क्षेत्र इसका सामना कर रहा है। असल में हालात गवाह हैं कि समूचा हिमालयी क्षेत्र बेहद गंभीर आक्रामक दौर से गुजर रहा है। यह टिप्पणी देश की सुप्रीम कोर्ट ने की है। हिमाचल प्रदेश में आपदा के मामले में सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि हालात की गंभीरता को देखते हुए हिमाचल प्रदेश के हालात पर स्वत संज्ञान लेते हुए 23 सितम्बर को आदेश पारित करेंगे। गौरतलब है कि इस मामले में कोर्ट का सहयोग कर रहे एथिक्स क्यूरी वरिष्ठ वकील के परमेश्वर ने कहा की राज्य की तरफ से दी गई रिपोर्ट में पेड़ों की तादाद, ग्लेशियर और खनन सम्बंधी पहलुओं आदि को शामिल किया गया है, लेकिन कुछ भी खास बात नहीं कही गई हैं। के परमेश्वर ने पीठ को जानकारी दी कि राज्य की तरफ से बताया गया है कि ग्लेशियर घट रहे हैं और उनकी गतिविधियां तेज हो रही हैं, लेकिन उनका इस रिपोर्ट में जिक्र नहीं है।
बाढ़ और भूस्खलन :
यही नहीं एक अन्य याचिका जो हरियाणा की रहने वाली अनामिका राणा ने दायर की थी, पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर.गबई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा है कि हमने उत्तराखंड, हिमाचल और पंजाब में अभूतपूर्व बाढ़ और भूस्खलन देखा है। मीडिया में आए वीडियो का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि बड़ी संख्या में हमने लकड़ी के गट्ठे पानी में बहते हुए देखे हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि पहाड़ों पर बड़ी संख्या में पेड़ों की अवैध कटाई हुई है। इसी के फलस्वरूप पहाड़ों पर ये आपदाएं आर्इं हैं। यह पहाड़ों पर विकास और पर्यावरण के बीच असंतुलन का दुष्परिणाम है। हमने पंजाब की तस्वीरें भी देखी हैं। पूरे खेत और फसलें जलमग्न हैं। यह गंभीर मामला है। विकास को राहत उपायों के साथ संतुलित किया जाना बेहद जरूरी है। याचिका में हिमाचल, उत्तराखंड,पंजाब और जम्मू-काश्मीर में बाढ़ बादल फटने और भूस्खलन का मुद्दा उठाते हुए भविष्य के लिए कार्य योजना बनाने की मांग की गई, जिससे यह स्थिति दोबारा न आने पाए।
प्राकृतिक आपदाएं :
हिमालयी इलाका 13 राज्यों यथा उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम सहित केन्द्र शासित प्रदेशों में फैला हुआ है। मानसून के दौरान इनको अधिकाधिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। ये अपनी जटिल बनावट, नाजुक हालात और लगातार बदलती जलवायु परिस्थितियों की वजह से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूस्खलन, बाढ़, भूकंप, बादल फटने और ग्लेशियर पिघलने की वजह से आने वाली बाढ़ के प्रति संवेदनशील होते हैं। ये आपदाएं आबादी क्षेत्र, बुनियादी ढांचों और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। एक आकलन के मुताबिक 2013 से 20022 के बीच पूरे देश में 156 आपदाएं दर्ज हुर्इं, जिनमें 68 हिमालयी क्षेत्र में हुईं।देश के भौगोलिक क्षेत्र में 18 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले इस हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की हिस्सेदारी करीब 44 फीसदी है।
मौसमी बदलाव :
असलियत में हिमाचल, पंजाब, उत्तराखंड और जम्मू-काश्मीर में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की बर्बादी के मंजर हमारी स्मृतियों से ओझल भी नहीं हुए थे कि बीते दिनों देहरादून में सहस्त्र धारा जैसे मैदानी इलाकों तक को इसका प्रकोप झेलना पड़ा। जबकि अभी तक पहाड़ी इलाकों में ही बादल फटने और भूस्खलन जैसी घटनाएं घटती रही हैं। इस बदलाव ने चिंताएं और बढ़ा दी हैं। दरअसल हिमालय के हादसे बता रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में सब ठीक नहीं चल रहा है। मौसमी बदलाव इसमें बहुत बड़ी भूमिका निबाह रहा है। क्योंकि मौसम में आ रहा बदलाव मानवता के समक्ष अबतक की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटने में देरी या नाकामी भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है। यह खतरा केवल हिमालयी क्षेत्र को ही नहीं है, हकीकत में यह समूचे विश्व के लिए खतरनाक चुनौती है। फिर पर्यावरण में हो रहे बदलाव बेहद चुनौती भरे और गंभीर हैं, जिसके दुष्परिणाम सभी को भुगतने होंगे। क्योंकि ये बदलाव धरती के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके हैं। मानसून मौसम विज्ञानियों को जहां गच्चा दे रहा है, वहीं मानसून की अनिश्चितता ने देश में बारिश की तीव्रता को काफी हदतक बढ़ा दिया है।
हिंदूकुश पर्वतमाला :
एक खतरा और है, वह यह कि हिंदूकुश पर्वतमाला के ग्लेशियर भयावह रूप से तेजी से पिघल रहे हैं। नतीजतन इस इलाके की नदियां अपनी धाराएं बदल रही हैं। हिंदूकुश पर्वत को एशिया की जल मीनार और तीसरा धु्रव भी कहा जाता है। इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की अनदेखी समझ से परे है। लगता है केन्द्र और राज्य सरकारों के पास समर्पित आपदा प्रबंधन प्राधिकरण होने के बावजूद इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को रोकने या कम करने की कोई योजना ही नही है। जबकि ऐसे समय जब समूची दुनिया बढ़ते तापमान के कहर से त्रस्त है और जब इस इलाके में मौसमी विभीषिका विकराल रूप ले रही हैं, तब ये आपदाएं इस क्षेत्र में तमाम खतरों की संवेदनशीलता की ओर संकेत करती हैं और हिमालय की नाजुक ढ़लान, घाटियों में मानवीय तथा निर्माण गतिविधियों के प्रति सावधान करती हैं। इस वर्ष जिस तरह कुदरत का कहर बरपा है, उससे न सिर्फ शासन तंत्र को, बल्कि नागरिक समाज को भी सबक लेने की जरूरत है।
-ज्ञानेन्द्र रावत
यह लेखक के अपने विचार हैं।

Comment List