गुरु गोबिन्द सिंह के हर तीर की नोक पर एक तोला सोना लगा रहता था, तीर से घायल होने वाला इलाज करा सके, जबकि मरने वालों का संस्कार हो सके
धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से 14 युद्ध लड़े थे
आज सुनने और पढ़ने में बड़ा अजीब लगता है कि दुश्मन के प्राण लेने के लिए लालायित और उद्वेलित व्यक्ति के हर तीर की नोक पर एक तोला सोना लगा रहता था।
जयपुर। आज सुनने और पढ़ने में बड़ा अजीब लगता है कि दुश्मन के प्राण लेने के लिए लालायित और उद्वेलित व्यक्ति के हर तीर की नोक पर एक तोला सोना लगा रहता था। उनके शिष्यों ने पूछा कि जब आपको दुश्मन को मार कर भगाना ही है, तो आपके तीर पर सोना क्यों लगवाते हैं? इस पर उन्होंने कहा-‘मेरा कोई दुश्मन नहीं है, मेरी लड़ाई जालिम के जुल्म से हैं।
मेरे इन तीरों से अगर कोई घायल होता है, तो कम से कम सोने की मदद से अपना इलाज करा सकता है और अगर उसकी मौत होती है, तो उससे उसका अन्तिम संस्कार किया जा सकता है। सिख धर्म के दसवें गुरु गोबिन्द सिंह के हर तीर की नोक पर एक तोला सोना लगा रहता था। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े थे। बादशाह औरंगजेब ने गुरु गोबिन्द सिंह के दो पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करने पर जिन्दा दीवार में चुनवा दिया था। जबकि उनके दो पुत्र जुझार सिंह और अजित सिंह मुगलों से लोहा लेते हुए, धर्म की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे।
दियागुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए पूरे परिवार का बलिदान कर दिया था, जिसके कारण उन्हें सरबंसदानी भी कहा जाता है। गुरु गोबिन्द सिंह के पिता एवं सिख धर्म के नवें गुरु तेगबहादुर के इस्लाम धर्म न स्वीकारने पर 11 नवम्बर, 1675 को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से सिर कटवा दिया था। दिल्ली का गुरुद्वारा शीशगंज इसकी याद दिलाता है। पिता के शहीद होने के बाद 29 मार्च, 1676 को गोबिन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।
खालसा पंथ की स्थापना क्यों की ?
गुरु गोबिन्द सिंह ने तीस मार्च, 1699 में खालसा पंथ धर्म की रक्षा और मुगलों के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए की थी। एक सभा में गुरु गोबिन्द सिंह ने पूछा कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है? उसी समय एक ने कहा मैं। गुरु गोबिन्द सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे, एक खून लगी हुई तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा वही प्रश्न पूछा- तभी दूसरा व्यक्ति तैयार हो गया। उसे तम्बू में ले गए और बाहर निकले तो तलवार खून से सनी थी। इसी तरह वे तीन और लोगों को साथ लेकर गए और खून लगी हुई तलवार के साथ लौटे। कुछ देर बाद गुरु गोबिन्द सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया। वे पांचों पंच प्यारे अलग-अलग दिशाओं और समाज के वंचित वर्ग से थे।
गुरु गोबिन्द ने धर्म की रक्षा के लिए पूरे वंश की शहादत दे दी थी। हिन्दू धर्म की एकता और अखण्डता के लिए पूरे परिवार का बलिदान कर दिया लेकिन इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया। जुल्म के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे।
-सरदार अजय पाल सिंह, अध्यक्ष राजस्थान सिख समाज
गुरु गोबिन्द सिंह के पिता गुरु तेगबहादुर, मां गूजरी, चारों पुत्र धर्म की रक्षार्थ बलिदान हो गए थे। दुश्मन पर भी जब तीर चलाते समय उसके परिवार की चिंता करते थे। उनके तीर के नोक सोने के बने होते थे।
-सरदार जसबीर सिंह, पूर्व अध्यक्ष राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग, जयपुर
समूची मानवता में ईश्वर का दीदार करने वाले गुरुजी मानव प्यार को सच्ची भक्ति और उपासना मानते थे। उनकी लड़ाई किसी जाति और धर्म के खिलाफ नहीं थी, बल्कि फिरकापरस्ती के खिलाफ थी।’
-डॉ.मंजीत कौर, गुरुवाणी चिंतक एवं सिख अनुसंधानकर्ता
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