महाराष्ट्र चुनाव में दलित वोटर जिस ओर करेंगे रुख उसकी होगी नैया पार

इस गठबंधन में उनकी कोई पूछ नहीं है

महाराष्ट्र चुनाव में दलित वोटर जिस ओर करेंगे रुख उसकी होगी नैया पार

खासकर तब जब लोकसभा चुनाव में दलितों ने ही बीजेपी के अबकी बार 400 पार के मंसूबे को ध्वस्त किया है।

मुंबई। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के मैदान-ए-जंग में मराठा-ओबीसी, धनगर-आदिवासी, मुस्लिम-अल्पसंख्यक वोटरों की चर्चा तो हो रही है, लेकिन दलित वोटर खामोश है। रामदास आठवले की रिपब्लिकन पार्टी आरपीआई (ए) महायुति यानी बीजेपी, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) वाले गठबंधन का हिस्सा है। लेकिन इस गठबंधन में उनकी कोई पूछ नहीं है। कहने को तो रामदास आठवले ने देवेंद्र फडणवीस से लिखित में 12 सीटों की मांग की थी। लेकिन आठवले को केंद्रीय मंत्री पद के खूंटे से बंधी गाय जानकर उनकी मांग को कोई अहमियत नहीं दी गई। महायुति में सीटों के बंटवारे की चर्चा में न तो आठवले को शामिल किया गया और ना ही उनके लिए एक भी सीट छोड़ी गई। नामांकन का समय समाप्त हो रहा है और दलित कार्यकर्ता उबल रहे हैं। रामदास आठवले भी सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजी जता रहे हैं, लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। आखिर महायुति में दलितों के प्रति इतनी बेरुखी क्यों है? खासकर तब जब लोकसभा चुनाव में दलितों ने ही बीजेपी के अबकी बार 400 पार के मंसूबे को ध्वस्त किया है।

दलित वोटों की ताकत और प्रभाव
आइए समझते है महाराष्ट्र में दलित वोटों का गणित क्या है और उसका झुकाव परिणामों को कैसे प्रभावित कर सकता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक महाराष्ट्र में दलितों की आबादी 11. 81% थी। यानी मोटे अनुमान के मुताबिक 12 साल बाद 2024 में यह बढ़कर तकरीबन 15% के आसपास होगी। महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों में से 29 सीटें एससी के लिए आरक्षित हैं। 288 में हर एक सीट पर औसतन दलित वोटरों की संख्या 15000 के आसपास है। अलाव इसके 67 विधानसभा सीट ऐसी हैं जिन पर दलित आबादी 15% से भी ज्यादा है तकरीबन 18% है। 2019 के चुनाव परिणाम के मुताबिक बीजेपी, शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) के साथ रउ के लिए 29 रिजर्व सीटों पर जीते विधायकों में से 21 विधायक हैं। जबकि महा विकास आघाड़ी के साथ सिर्फ 8 विधायक हैं।

लोकसभा चुनाव के बाद बदली है तस्वीर
पिछले लोकसभा चुनाव में तस्वीर बदली है। दलितों के लिए रिजर्व लोकसभा की सभी 5 सीटों लातूर, रामटेक, सोलापुर, अमरावती और शिर्डी पर महा विकास आघाड़ी के उम्मीदवार चुनाव जीते हैं। यानी साफ है कि दलित वोट बैंक शिफ्ट हुआ है। इनमें से शिर्डी पर शिवसेना यूबीटी और बाकी चार सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली। लोकसभा के वोटों का विशेषण बताता है कि विधानसभा की जो 29 सीटें एससी के लिए रिजर्व हैं लोकसभा चुनाव में उनमें से 21 सीटों पर महा विकास आघाड़ी को लीड मिली है। जबकि 8 सीटों पर महायुति को लीड मिली। एमवीए ने उन 88 विधानसभा क्षेत्रों में से 51 में बढ़त बनाई, जहां दलितों की संख्या 15% से अधिक है। यानी दलित वोटों का समीकरण 360 डिग्री बदला हुआ दिखाई दे रहा है। दलितों का यह रुझान इसलिए भी खास है क्योंकि लोकसभा चुनाव में प्रकाश आंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन आघाड़ी (वीबीए) जैसे अन्य दूसरे दल भी मैदान में थे। लेकिन वे जीत हासिल करने में नाकाम रहे। शायद इसकी वजह यह रही कि दलितों को लगा कि प्रकाश आंबेडकर बीजेपी को फायदा दे रहे हैं तो दलितों ने उनका साथ नहीं दिया।

दलित क्रोधित क्यों?
भले ही बीजेपी यह प्रचार कर रही है कि संविधान खतरे में और आरक्षण खत्म के कथित फेक नैरेटिव ने दलितों को बरगलाया है, लेकिन असली वजह यह है कि दलितों खास तौर पर बौद्धों के बीच यह बात तेजी से फैल रही है कि बीजेपी अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए दलितों में फूट डाल रही है। वह दलितों को मातंग और बौद्धों में बांटने का काम कर रही है। इससे उनका आरक्षण कम होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। बता दें कि महाराष्ट्र में दलितों में 59 से अधिक अलग-अलग जातियां शामिल हैं। इनमें महार जो बौद्ध या नव बौद्ध है इनकी संख्या सबसे अधिक है। नव-बौद्ध (महार) दलित जनसंख्या का लगभग 40% हैं। यही अंबेडकरवादी आंदोलन के अनुयायी है और उनकी राजनीति का केंद्र सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण होता है।

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दलित आरक्षण बंटने का खतरा
 वर्तमान में दलित यानी अनुसूचित जाति (एससी) को शिक्षा और नौकरियों में 13 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। बौद्धों के बीच यह धारणा है कि दलितों में फूट डालने के लिए दलितों की मातंग जाति को हिदू दलित कहना शुरू किया गया है। मातंग के बीच धारणा यह है कि दलितों के लिए फिक्स 13 फीसदी आरक्षण का ज्यादा लाभ महार यानी बौद्ध ले लेते हैं। इसलिए आरक्षण कोटे का विभाजन होना चाहिए। बौद्ध दलित नेता ऐसे किसी भी विचार के खिलाफ हैं।

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