करवा चौथ भारतीय संस्कृति का लोकप्रिय पर्व

प्रेम का उत्सव 

करवा चौथ भारतीय संस्कृति का लोकप्रिय पर्व

हर साल कार्तिक मास की चतुर्थी को जब शाम का सूरज डूबता है, तो भारत के कोने-कोने में सजी-संवरी महिलाएं थाली में दीप, छलनी और करवा सजाकर चांद के दर्शन करती हैं।

हर साल कार्तिक मास की चतुर्थी को जब शाम का सूरज डूबता है, तो भारत के कोने-कोने में सजी-संवरी महिलाएं थाली में दीप, छलनी और करवा सजाकर चांद के दर्शन करती हैं। उनके माथे पर लाल बिंदी, हाथों में मेंहदी, आंखों में इंतजार और होठों पर एक ही सवाल चांद निकला क्या,यह दृश्य भारतीय संस्कृति की सुंदरता का प्रतीक भी है और उसकी गहराई में छिपे सामाजिक अर्थों का आईना भी। करवा चौथ का व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा,राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। इस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु के लिए सूर्योदय से चंद्रोदय तक निर्जला व्रत रखती हैं। परंपरा के अनुसार यह व्रत सुहाग की स्थिरता और पति की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है, और दिनभर की तपस्या के बाद जब चांद निकलता है तो पत्नी छलनी से पति का चेहरा देख कर व्रत तोड़ती है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या यह व्रत सिर्फ प्रेम और आस्था की अभिव्यक्ति है या समाज की पितृसत्तात्मक जड़ों में गहरे धंसा एक प्रतीक।

सुहाग से जोड़ा गया :

भारतीय समाज में स्त्री के जीवन को सुहाग से जोड़ा गया है,उसकी खुशी, उसकी प्रतिष्ठा और उसकी पहचान तक। विवाह के बाद उसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका पति माना गया, और उसकी मृत्यु को अभिशाप समझा गया। ऐसे में करवा चौथ जैसे व्रत स्त्री के समर्पण, त्याग और सहनशीलता का उत्सव बन गए। लेकिन क्या यह प्रेम का उत्सव है या स्त्री के अस्तित्व को पति की उम्र के साथ बांध देने का सांस्कृतिक औचित्य। आज की पढ़ी-लिखी स्त्री जब करवा चौथ का व्रत रखती है, तो उसके कारण परंपरागत नहीं भी हो सकते। कई महिलाओं के लिए यह पति के प्रति प्रेम का, साथ निभाने का, रिश्ते में सामंजस्य का प्रतीक बन चुका है। वहीं कई पुरुष भी अब पत्नी के साथ समान भाव से व्रत रखने लगे हैं,यह बदलाव सकारात्मक है। परंतु यह भी उतना ही सच है कि करवा चौथ आज एक कल्चरल इवेंट बन गया है,टीवी धारावाहिकों, फिल्मों और सोशल मीडिया पर यह व्रत जितना ग्लैमरस दिखाया जाता है, उतनी ही गहराई में उसका मूल अर्थ खोता जा रहा है। कभी यह व्रत गांव की औरतों के बीच अपनापन और सहयोग का प्रतीक था। महिलाएं एक-दूसरे के घर जातीं, मिट्टी के करवे में जल भरतीं, गीत गातीं, करवा चौथ का व्रत है भाई, करवा लाना भूली न जाई।

इंस्टा रील्स का युग :

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यह त्योहार उनके लिए आपसी मिलन का अवसर था, जहां वे जीवन की तकलीफों को साझा करतीं। पर अब यह व्रत सोने के करवे, महंगे साज-श्रृंगार और डिजाइनर साड़ियों का प्रदर्शन बन गया है। उपवास के बजाय अब इंस्टा रील्स का युग है,जहां सजना-संवरना ही मुख्य उद्देश्य बन गया है। परंपराओं को केवल अंधविश्वास कहकर नकार देना भी उचित नहीं। हर संस्कृति की अपनी आत्मा होती है। करवा चौथ के पीछे जो भाव है प्रेम, समर्पण और आस्था का, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी जरूरी है कि हम परंपरा को आधुनिक दृष्टि से देखें। आज जब हम समानता, स्वतंत्रता और पारस्परिक सम्मान की बात करते हैं, तो यह व्रत भी एकतरफा नहीं रहना चाहिए। यदि पत्नी पति की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती है, तो पति भी पत्नी की सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य के लिए समान भाव से प्रार्थना करें, यही सच्चा प्रेम और समानता है। दिलचस्प बात यह है कि करवा चौथ का धार्मिक या पौराणिक आधार उतना स्पष्ट नहीं है, जितना कि इसके लोकप्रचलन का प्रभाव। करवा यानी मिट्टी का घड़ा, जो प्राचीन भारत में जल का प्रतीक था और चौथ यानी चतुर्थी का दिन।

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प्रेम का उत्सव :

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आधुनिक समाज में करवा चौथ की व्याख्या के कई अर्थ हैं। एक ओर यह प्रेम का उत्सव है, तो दूसरी ओर यह स्त्री पर आदर्श पत्नी बनने का सामाजिक दबाव भी। यह द्वंद्व हमें सोचने पर मजबूर करता है,क्या हर प्रेम का प्रमाण त्याग से ही मापा जाएगा, क्या भूखे रहकर ही सच्ची निष्ठा सिद्ध होती है,और क्या यह परंपरा पति-पत्नी के बीच समान संबंधों का उत्सव बन पाई है या अब भी पति-प्रधानता का ही प्रतीक है। यह सच है कि समय के साथ इसके स्वरूप में बदलाव आया है। अब कई जगह पति भी व्रत रखते हैं, यह बदलाव बताता है कि समाज धीरे-धीरे समानता की ओर बढ़ रहा है। त्योहार का अर्थ वही रहता है, पर दृष्टिकोण बदल जाता है। करवा चौथ का भी यही हाल है,जहां पहले यह स्त्री के कर्तव्य का प्रतीक था, वहीं अब यह रिश्तों की साझेदारी का रूप ले रहा है। आज जरूरत है कि हम परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाएं। करवा चौथ को न तो केवल रूढ़िवादिता समझें, न ही सिर्फ दिखावे का त्योहार बनाएं। इसके भीतर के प्रेम, भाव और समर्पण को सच्चे अर्थों में आत्मसात करें,बिना किसी सामाजिक दबाव के। हर स्त्री को यह अधिकार होना चाहिए कि वह चाहे तो व्रत रखे या न रखे,क्योंकि प्रेम की परिभाषा उपवास से नहीं, आपसी समझ और सम्मान से तय होती है।

-डॉ.प्रियंका सौरभ
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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