युवाओं में बढ़ता एकांत कितना खतरनाक

भावनात्मक मजबूती 

युवाओं में बढ़ता एकांत कितना खतरनाक

वर्तमान दौर में भारत तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है।

वर्तमान दौर में भारत तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है। तकनीक, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, रोजगार और जीवनशैली में हो रहे परिवर्तनों ने हमारे समाज को अभूतपूर्व गति से आगे बढ़ाया है। इस विकास यात्रा में युवा वर्ग सबसे अधिक ऊर्जावान, रचनात्मक और बदलाव का वाहक माना जाता है। युवा सपनों, साहस और संभावनाओं से भरे होते हैं। परंतु इसी चमकदार परिदृश्य के भीतर एक गहरा और लगातार बढ़ता संकट जन्म ले चुका है-एकांत, अकेलापन और भावनात्मक विखंडन। आज यह अकेलापन केवल व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि एक मौन मानसिक महामारी का रूप लेने लगा है। प्रश्न यह है कि इतनी आधुनिकता, इतनी सुविधा और इतनी तकनीक के बीच भी युवा कहां और क्यों अकेले पड़ते जा रहे हैं। स्मार्टफोन, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने दावा किया था कि वे लोगों को दुनिया से जोड़ देंगे। पर विडम्बना यह है कि यही तकनीक युवाओं को अपने भीतर कैद करने लगी है।

संवाद का अभाव :

दिन-रात ऑनलाइन रहने के बावजूद युवाओं में असली संवाद का अभाव बढ़ता गया है। बातचीत शब्दों से सिमटकर इमोजी में बदल गई है और दोस्ती गहरे रिश्तों से हटकर फॉलोअर्स और लाइक्स की गिनती बनकर रह गई है। युवा घंटों ऑनलाइन रहते हैं, लेकिन दिल का बोझ साझा करने के लिए एक भरोसेमंद व्यक्ति ढूंढ़ना उनके लिए कठिन हो गया है। आज का युवा अपने भविष्य को लेकर अत्यधिक सजग है। करियर, नौकरी, प्रतियोगी परीक्षाएं, आर्थिक सुरक्षा और जीवन में कुछ बड़ा कर दिखाने की चाह उसे लगातार दौड़ने पर मजबूर करती है। इस निरंतर दबाव में वह अक्सर यह महसूस करने लगता है कि वह अकेला है, पीछे छूट रहा है, और यदि वह सफल नहीं हुआ, तो जीवन का मूल्य कम हो जाएगा। समाज की अपेक्षाएं, प्रतिस्पर्धा की अंधी होड़ और असफलता का भय युवा मन में एक ऐसी बेचैनी पैदा करते हैं, जो धीरे-धीरे उसे भीतर ही भीतर तोड़ने लगती है। वे खुद को परफॉर्मर समझने लगते हैं, इंसान होने की सादगी और भावनाओं से दूर हो जाते हैं।

एकाकी बना देता है :

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असफलता की स्थिति में यह अकेलापन अत्यधिक बढ़ जाता है। ऐसे में उन्हें लगता है कि कोई उनकी स्थिति समझ भी नहीं सकता, और यही विचार उन्हें मानसिक रूप से और अधिक एकाकी बना देता है। भारतीय परिवार पारंपरिक रूप से भावनात्मक सहारा और सुरक्षा का सबसे मजबूत स्तंभ माना जाता रहा है। लेकिन आधुनिक जीवनशैली ने इस नींव को भी हिला दिया है। व्यस्त माता-पिता, ऑफिस के लंबे घंटे, मोबाइल स्क्रीन पर बढ़ता समय, अलग-अलग कमरों में रहने की आदत, और साझा समय का कम होना,इन सबने युवाओं को परिवार से दूरी की ओर धकेल दिया है। जिस उम्र में उन्हें सबसे अधिक मार्गदर्शन, संवाद और समझ की आवश्यकता होती है, उसी उम्र में उनके पास सुनने वाला कोई नहीं होता। परिणामस्वरूप वे अपनी भावनाएं भीतर दबाते रहते हैं, और धीरे-धीरे भावनात्मक खालीपन बढ़ने लगता है। सोशल मीडिया ने सफलता की एक ऐसी कृत्रिम दुनिया निर्माण कर दी है, जिसमें हर कोई खुश, सफल, धनी और संतुष्ट दिखता है।

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जीवन की तुलना :

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युवा इस सजावट को वास्तविकता मान बैठते हैं और अपने जीवन की तुलना दूसरों से करने लगते हैं। धीरे-धीरे उनके भीतर यह भावना घर कर जाती है कि मेरे पास वह सब नहीं है जो दूसरों के पास है। मेरी जिंदगी पीछे चल रही है। तुलना का यह दबाव उन्हें आत्मसंतोष से दूर कर देता है और वे अपने ही भीतर एकांत का महल बना लेते हैं। आज के रिश्ते पहले जैसे गहरे, स्थिर और दीर्घकालिक नहीं रह गए हैं। अवास्तविक अपेक्षाएं, जल्दबाजी में बनने वाले संबंध, भरोसे की कमी, और सोशल मीडिया की सतही नजदीकियां युवाओं को भावनात्मक रूप से कमजोर कर देती हैं। ब्रेकअप, धोखा या रिश्तों में असफलता का दर्द युवा मन के लिए अत्यंत भारी हो जाता है। बड़े शहरों में रहने वाला युवा दिनभर हजारों लोगों को देखता है, भीड़ में चलता है, भीड़ के बीच काम करता है,परंतु उसके पास दिल की बात कहने वाला कोई नहीं होता। उसके पास होता है, एक छोटा-सा कमरा,एक मोबाइल स्क्रीन,किताबों और असाइनमेंट का दबाव,और मन में पलता अनकहा तनाव।

भावनात्मक मजबूती :

परिवार में प्रतिदिन कम से कम कुछ समय ऐसा होना चाहिए, जब न फोन हो, न टीवी, न अन्य व्यवधान सिर्फ एक-दूसरे की बात सुनने का समय। यही संवाद मानसिक सुरक्षा की पहली सीढ़ी है। स्क्रीन से बाहर की दुनिया को फिर से जीवन का हिस्सा बनाना होगा। दोस्तों के साथ वास्तविक बातचीत, समूह गतिविधियां, खेल, सांस्कृतिक आयोजन और सामुदायिक कार्यक्रम युवाओं को पुन: जीवन से जोड़ सकते हैं। युवाओं को यह समझाना अत्यंत आवश्यक है कि हर व्यक्ति का विकास पथ अलग होता,सोशल मीडिया पर दिखने वाली सफलताएं वास्तविकता का पूरा चित्र नहीं होतीं। असफलता को अंत नहीं, बल्कि नए आरंभ का अवसर समझाया जाए। युवाओं को अपनी भावनाओं को पहचानने, उन्हें व्यक्त करने और उन्हें स्वस्थ तरीके से संभालने की कला सिखानी चाहिए। यह कौशल उन्हें जीवन भर मानसिक रूप से मजबूत बनाए रखेगा।

-डॉ. वीरेन्द्र भाटी मंगल
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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