प्रकृति, पर्यावरण और सनातन परंपराएं

प्रकृति संरक्षण के सूत्र मिलते हैं

प्रकृति, पर्यावरण और सनातन परंपराएं

भारतीय सनातन परंपराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मिलते हैं।

भारतीय सनातन परंपराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मिलते हैं। जहां तक हिंदू धर्म का प्रश्न है, इसमें प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के रूप में मान्यता प्राप्त है। यही वह अहम कारण है जिसमें पेड़-पौधौं, नदियों, पर्वत मालाओं, गृह, नक्षत्र, अग्नि, वायु, जल को प्रकृति के विभिन्न रूपों यथा देवताओं के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। पुरातन काल से ऋषि परंपरा प्रकृति व वन संरक्षण को प्रधानता देती है। यही अहम कारण रहा कि प्रकृति और मानवीय सम्बंधों को न केवल विकसित किया बल्कि उसके संरक्षण को भी महत्ता दी। तात्पर्य यह कि प्रकृति के संरक्षण में परंपराओं की अहम भूमिका रही है। ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति का जीवंत प्रमाण है। हिन्दुत्व एक वैज्ञानिक जीवन पद्धति है। हमारे हिन्दू धर्म का सह अस्तित्व का सिद्धांत प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। हमारी ऋषि परंपरा इतनी समृद्ध है कि जिसने जल और जंगल को पृथ्वी का आधार माना। वृक्ष जल है, जल अन्न है और अन्न ही जीवन है। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि हमारे चारों आश्रमों में से यथा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास का सीधा सम्बन्ध वनों से है। हमारी संस्कृति में भी वनों को देवता मानकर उनकी पूजा की जाती है। इसका अर्थ यह है कि हिन्दू वनों का संरक्षक है। 

सम्राट विक्रमादित्य और अशोक का काल प्रमाण है कि उस काल में वनों की रक्षा सर्वोपरि थी। हममारे ऋषि-मुनियों की मान्यता थी कि पेड़ों में चेतना होती है। ऋग्वेद, पद्मपुराण, मनुस्मृति और वृहदारण्य कोप निषद आदि में इसका स्पष्ट उल्लेख है। ऋषि उद्दालक की मान्यता है कि वृक्ष जितात्मा से ओतप्रोत होते हैं। हिन्दू धर्म संस्कृति में तुलसी की महत्ता सर्वोपरि है। कारण वह मनुष्य को सर्वाधिक प्राणवायु आक्सीजन देती है।  वह औषधि गुणों से परिपूर्ण है। वृक्षों के पूजन की परंपरा हमारे यहां आदिकाल से रही है। वट, पीपल, आंवला इसी श्रेणी में आते हैं। हिन्दू धर्म के हरेक देवता पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़-पौधे आदि प्रकृति के दूसरे अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं। नदी को मां के रूप में पूजा जाता है।

मुनियों ने ऋषियों ने जल को दीर्घायु प्रदायक, कल्याण कारक, सुखदायक व प्राणरक्षक माना है। उनके अनुसार जल के बिना जीवन असंभव है। यही वह कारण है कि उन्होंने जलस्रोतों की रक्षा और नदियों, सरोवरों व सागरों की उपासना पर बल दिया। उन्होंने कहा कि जल ही ब्रह्मा है। पर्वतों को देवताओं के वास की संज्ञा देकर उनकी महत्ता स्थापित की। हिमालय व गोवर्धन इस कथ्य के जीवंत प्रमाण हैं। यह देवत्व के प्रतीक हैं।

यह भी कटु सत्य है कि जीव-जंतुओं को देवरूप की प्रतिष्ठा हासिल है। इसके पीछे जीवों के संरक्षण का ही संदेश है। इस सच्चाई से भी इन्कार नहीं  किया जा सकता कि हमारी संस्कृति में जीवों के कल्याण का भाव निहित है। जहां तक पर्वों का सवाल है, वह चाहे मकर संक्रांति हो, वसंत पंचमी हो, महा शिवरात्रि, होली, नवरात्र, वट सावित्री व्रत पूजा हो या दीपावली ये सभी पर्व प्रकृति पर्व ही तो हैं। प्रकृति ने हमें यह क्षमता प्रदान की है कि हम गहराई से प्रकृति को जान सकें,  समझ सकें। यह भी कि प्रकृति की यह सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह हमें हरेक अच्छे-बुरे के बारे में स्पष्ट तौर पर संकेत देती है, बताती है लेकिन हम अपनी कमजोरी कहें या मानवीय संवेदनाओं के चलते हम उस ओर ध्यान ही नहीं दे पाते। वह बात और है कि विविधताओं से भरपूर प्रकृति रूपी इस अनमोल खजाने की ओर संवेदनहीनता और लापरवाही की वजह से हमारा ध्यान जाता ही नहीं है। 

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उस स्थिति तक जब तक कि हमारे जीवन में कुछ खास घटित न हो जाए। तब तक हम उस ओर ध्यान ही नहीं देते। इसका अहम कारण हमारे जीवन की एकरसता जो हमारी आदत बन चुकी है जिसके चलते हम जीवन की भागदौड़ में इतने व्यस्त रहते हैं या यों कहें कि मस्त रहते हैं, जिसके कारण हम बाहरी दुनिया की घटनाओं से सर्वथा अनभिज्ञ बने रहते हैं। इसी प्रवृत्ति के चलते हम प्रकृति और समाज के मध्य उपजी भावनाओं से विमुख बने रहते हैं। यह सबसे बड़ी विडंबना है। और यह भी बेहद जरूरी है कि जिस प्रकृति से हमें हवा, पानी, भोजन मिलते हैं, उससे हमारा क्या और कैसा रिश्ता होना चाहिए जिससे हमारी जिंदगी नीरस न रहे। जीवन के और प्रकृति के बीच के स्पंदन को प्रकृति के अनुपम चितेरे महाकवि सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी कविताओं में न केवल एहसास किया बल्कि उसे शब्द और स्वर देकर लोगों को प्रकृति की विविधता और उसकी ध्वनि को सुनने पर विवश भी किया। दरअसल पंत जी ने रेत के उस सूक्ष्म कण को जिसे हम नदी के पानी के साथ बहकर आए पत्थर के कण समझते रहे, उन कणों में उन्होंने प्रकृति के गहरे निनाद को शब्दों में पिरोकर उसे प्रकृति का सहचर कहकर संबोधित किया। यह प्रकृति और जीव जंतुओं यानी प्राणी मात्र के जीवन के मर्म को स्पष्टत: परिभाषित करता है और हमारी सनातन समझ को भी।

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यह लेखक के अपने विचार हैं।

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