अब पराली बनी सियासत वाली
स्थायी समाधान नहीं
ठंड की दस्तक के साथ ही धान की कटाई और पराली जलाने का दौर शुरू हो जाता है।
ठंड की दस्तक के साथ ही धान की कटाई और पराली जलाने का दौर शुरू हो जाता है। हर साल की तरह इस बार भी दिवाली के आसपास प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुंचा और इसकी जिम्मेदारी एक बार फिर पराली पर डाल दी गई। पंजाब और दिल्ली की सरकारें इस मुद्दे पर आमने-सामने हैं, एक-दूसरे पर आरोप, लेकिन समाधान कहीं नहीं। सवाल उठता है कि जब सच्चाई सबके सामने है, तो राजनीतिक बयानबाजी से आखिर प्रदूषण कैसे कम होगा। यह सच है कि पराली के धुएं ने पंजाब, दिल्ली और आसपास के कई राज्यों की हवा जहरीली कर दी है। पराली का धुआं केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि सांसों में महसूस हो रहा है। कोविड-19 के बाद लोगों की प्रतिरोधक क्षमता और भी घट गई है, जिससे प्रदूषण के प्रभाव अधिक गंभीर हो गए हैं।
प्रदूषण के मामले :
सुप्रीम कोर्ट पहले भी केंद्र और राज्य सरकारों को प्रदूषण के मामले में फटकार लगा चुका है। अदालत ने पंजाब और हरियाणा सरकारों से पराली जलाने पर सख्ती से रोक लगाने को कहा था, लेकिन हालात में खास सुधार नहीं हुआ। 27 अक्टूबर तक के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में प्रदूषण में कुछ गिरावट जरूर आई, लेकिन एक्यूआई 301 पर बना रहा,जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से लगभग 1900 प्रतिशत अधिक है। बहादुरगढ़, गुरुग्राम, गाजियाबाद जैसे एनसीआर शहरों में स्थिति और भी खराब रही, जहां एक्यूआई 380 के पार गया। वहीं, देश के 256 शहरों में से केवल 23 प्रतिशत में हवा साफ रही यानी 77 प्रतिशत शहरों की हवा प्रदूषित है। दिल्ली के मुकाबले पंजाब में स्थिति कुछ बेहतर जरूर है, पर वहां भी वायु गुणवत्ता गिर रही है।
सैटेलाइट तस्वीरें :
नासा की सैटेलाइट तस्वीरें और चंडीगढ़ पीजीआई व पंजाब यूनिवर्सिटी के शोध बताते हैं कि भारतीय पंजाब ही नहीं, बल्कि पाकिस्तानी पंजाब में भी पराली जलाने की घटनाएं अधिक हैं। वहां की हवाएं भी भारत के सीमावर्ती इलाकों को प्रभावित करती हैं। ऐसे में प्रदूषण के इस धुंए की सीमा केवल राजनीतिक नहीं, भौगोलिक भी है। हर साल यह सवाल उठता है कि आखिर किसान पराली क्यों जलाते हैं, सच्चाई यह है कि किसान अपराधी नहीं, मजबूर हैं। छोटे किसान संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। पराली न जलाने के लिए जो मशीनें जैसे हैप्पी सीडर, सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम आदि चाहिए, वे महंगी हैं और किसानों को ऋण मिलना कठिन है। खेती पूरी तरह मौसम पर निर्भर है। धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के बीच बहुत कम समय होता है। यदि किसान पराली जलाए बिना खेत तैयार करे तो अगली फसल की बुवाई देर से होगी, जिससे पूरी फसल पर खतरा आ सकता है।
जलाने को विवश :
मौसम की अनिश्चितता और समय की कमी के कारण किसान मजबूरी में पराली जलाने को विवश हो जाते हैं। दिल्ली में प्रदूषण नया मुद्दा नहीं है। 1985 में भी यह समस्या गंभीर रूप में सामने आई थी, जब कीर्ति नगर क्षेत्र में एक फर्टिलाइजर संयंत्र से जहरीली गैस लीक हुई। उसके बाद अदालत ने प्रदूषणकारी इकाइयों पर प्रतिबंध लगाए और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। लेकिन चार दशक बाद भी हालात में कितना सुधार हुआ योजनाएं बनती हैं, बैठकें होती हैं, फिर सबकुछ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में दब जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें किसानों को लेकर कई घोषणाएं करती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जागरूकता और संसाधन दोनों की भारी कमी है। सरकारें पराली के वैकल्पिक उपयोग जैसे बायो-फ्यूल, पशु चारा, कम्पोस्ट, कार्डबोर्ड, पेपर उद्योग में उपयोग पर गंभीर चर्चा नहीं करतीं।
स्थायी समाधान नहीं :
दिल्ली सरकार द्वारा क्लाउड सीडिंग जैसे प्रयोगों की बात करना प्रदूषण पर अस्थायी राहत तो दे सकता है, पर स्थायी समाधान नहीं। जरूरी यह है कि पराली को कचरा नहीं,संसाधन के रूप में देखा जाए। कई देशों ने इसी चुनौती को अवसर में बदला है। स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों ने कृषि अपशिष्ट से बिजली और ईंधन बनाकर न केवल प्रदूषण कम किया, बल्कि किसानों की आय भी बढ़ाई। भारत में भी ऐसी तकनीकों को बढ़ावा दिया जा सकता है, बशर्ते राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। हर साल अक्टूबर-नवंबर में यह मुद्दा दोहराया जाता है। मीडिया, सरकारें, अदालतें सब सजग दिखते हैं, पर दिसंबर आते-आते मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है। जबकि सच यह है कि प्रदूषण किसी राज्य की सीमा नहीं जानता। न दिल्ली की हवा दिल्ली में रुकती है, न पंजाब का धुआं पंजाब में। जरूरत इस बात की है कि सभी राज्य मिलकर एक साझा नीति बनाएं।
दीर्घकालिक समाधान :
प्रदूषण का संकट केवल पराली का नहीं, बल्कि हमारी जीवनशैली, नीति-निर्माण और प्राथमिकताओं का भी आईना है। जब तक सरकारें राजनीतिक लाभ के बजाय दीर्घकालिक समाधान पर ध्यान नहीं देंगी, तब तक हर साल सर्दियों में दिल्ली और उत्तर भारत की हवा दमघोंटू बनी रहेगी। पराली समस्या का समाधान असंभव नहीं है। यह तकनीकी, आर्थिक और राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रश्न है। किसानों को दोषी ठहराने से बेहतर होगा कि उन्हें समाधान का हिस्सा बनाया जाए। सरकारें यदि पराली के व्यावसायिक उपयोगों को बढ़ावा दें, किसानों को उपकरणों के लिए सब्सिडी और प्रशिक्षण दें, और राज्यों के बीच समन्वय बढ़ाएं, तो आने वाले वर्षों में प्रदूषण की यह वार्षिक त्रासदी रोकी जा सकती है।
-ऋतुपर्ण दवे
यह लेखक के अपने विचार हैं।

Comment List