वन नेशन वन इलेक्शन लोकतंत्र में बढ़ता कदम

सांसदीय समिति के माध्यम से गंभीर मंथन और चिंतन हो सके

वन नेशन वन इलेक्शन लोकतंत्र में बढ़ता कदम

इसमें चुनाव आयोग, प्रशासनिक व्यवस्थाओं के साथ ही राजनीतिक दलों, प्रत्याशियों द्वारा होने वाला खर्च शामिल है।

एक देश एक चुनाव की दिशा में बढ़ते कदमों में स्थानीय निकायों के चुनावों की प्रक्रिया बाकी है जिस पर सरकार ने अभी गंभीरता नहीं दिखाई है और उसका कारण भी है कि उस प्रस्ताव के विधेयक को विधानसभाओं से भी पारित करवाया जाना होगा। 

लोकसभा में केन्द्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा एक देश एक चुनाव से संबंधित विधेयक पेश करने के साथ ही देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने की दिशा में एक कदम और बढ़ जाएगा। हांलाकि सरकार इस विधेयक को संसदीय समिति को भेजने की मंशा व्यक्त करती रही है ताकि इस पर सांसदीय समिति के माध्यम से गंभीर मंथन और चिंतन हो सके। हांलाकि अभी एक देश एक चुनाव की दिशा में बढ़ते कदमों में स्थानीय निकायों के चुनावों की प्रक्रिया बाकी है जिस पर सरकार ने अभी गंभीरता नहीं दिखाई है और उसका कारण भी है कि उस प्रस्ताव के विधेयक को विधानसभाओं से भी पारित करवाया जाना होगा। खैर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते हैं तो भले ही कांग्रेस सहित विपक्ष विरोध कर रहे हों पर माना जाना चाहिए कि यह सही दिशा में बढ़ता कदम होगा। ऐसा नहीं है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई नई बात हो बल्कि आजादी के समय से ही देश में एक साथ चुनाव कराने पर बल दिया जाता रहा है। 1952, 1957, 1962 और 1967 के चुनाव इसके उदाहरण है। 1968 से विधानसभाओं को भंग करने का जो सिलसिला चला उसने पूरे हालात ही बदल दिए और उसके बाद लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग अलग होने लगे। केवल सहूलियत ही मानलो अन्यथा अलग-अलग चुनावों के दुष्परिणाम अधिक ही सामने आते हैं। यह केवल चुनावों पर होने वाले सरकारी और गैरसरकारी खर्चों तक ही सीमित ना होकर अलग अलग चुनाव होने से एक नहीं अनेक समस्याओं का कारण बन रहे हैं। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग अलग होने से करीब एक साल तक चुनी हुई सरकार पंगु ही बन कर रह जाती है। इसको राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों के चुनावों से इस तरह से समझा जा सकता है। हांलाकि यह उदाहरण मात्र है और सभी प्रदेशों पर समान तरीके से लागू होता है।

नवंबर दिसबंर में राजस्थान की विधानसभा के चुनाव होते हैं। सरकार बनते ही अपनी प्राथमिकता भी तय कर पाती है जब तक बजट की तैयारी में जुटना पड़ता है क्योंकि अब फरवरी में ही बजट सेशन होने लगे हैं। मई जून में लोकसभा के चुनाव के कारण अप्रेल से ही आचार संहित लगने की तलवार लटक जाती है और करीब डेढ़ माह का समय आचार संहिता को समर्पित हो जाता है। इसके कुछ समय बाद ही या यों कहे कि परिवर्तित बजट से निपटते निपटते सरकार के सामने स्थानीय निकायों व पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव का समय हो जाता है और उसके कारण लंबा समय इन चुनावों के कारण आचार संहिता के भेंट चढ़ जाता है। इस बीच में कोई ना कोई उप चुनाव आ जाते हैं तो उसका असर भी चुनी हुई सरकार को भुगतना पड़ता है। जैसे तैसे चौथा साल पूरा होने को होता है कि सरकार ताबड़तोड़ निर्णय करने लगती है और इनके क्रियान्वयन का समय आते आते चुनाव आचार संहिता लग जाती है। इस तरह से एक बात तो साफ  हो जाती है कि पांच साल के लिए चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का कमोबेस करीब एक साल का समय तो चुनाव आचार संहिताओं के ही भेंट चढ़ जाता है। यह तो केवल लोकतांत्रिक जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के कार्यों के प्रभावित होने का एक उदाहरण मात्र है। अब अलग अलग चुनाव होने से चुनाव पर होने वाले सरकारी और गैर सरकारी खर्चों पर भी ध्यान दिया जा सकता है। 1952 के पहले चुनाव में सरकारी व गैरसरकारी जिसमें राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वालों का खर्च भी शामिल है वह करीब 10 करोड़ के आसपास रहा। 2010 के आमचुनाव में 10 हजार करोड़ का व्यय माना जा रहा है जो 2019 में 55 हजार करोड़ और 2024 के आमचुनावों में एक लाख करोड़ को छू गया है। इसमें चुनाव आयोग, प्रशासनिक व्यवस्थाओं के साथ ही राजनीतिक दलों, प्रत्याशियों द्वारा होने वाला खर्च शामिल है।

हांलाकि मोदी सरकार आने के बाद से ही 2014 से एक देश एक चुनाव पर चर्चा का सिलसिला चल निकला था। 2017 में नीति आयोग ने इसे उपयुक्त बताया और 2018 में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इसे सही दिशा बताया। सितंबर 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 6 सदस्यीय कमेटी बनाई गई और 65 बैठके कर 18626 पन्नों की रिपोर्ट इसी साल मार्च 24 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को पेश की गई। यदि इन सभी सिफारिशों को लागू किया जाता है तो 18 संसोधनों की आवश्यकता होगी। हांलाकि सरकार ने अभी एक हिस्से यानी कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने की दिशा में कदम बढ़ाती लग रही है। और माना जा रहा है कि 2029 के चुनाव नई व्यवस्था यानी कि एक देश एक चुनाव वन नेशन वन इलेक्शन से हो। हांलाकि इसके लिए चुनाव आयोग व सरकारों को मशक्कत करनी पड़ेगी पर यदि एक बार यह सिलसिला चल निकलेगा तो इसे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत ही माना जाएगा। 

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-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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