प्लास्टिक उत्पादन में कटौती आवश्यक

जल, मृदा, वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है

प्लास्टिक उत्पादन में कटौती आवश्यक

प्लास्टिक के भयावह खतरों को देखते हुए दुनिया के 40 देश प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध लगा चुके हैं। इनमें फ्रांस, चीन, इटली, रवांडा और केन्या शामिल हैं।

आज समूची दुनिया में प्लास्टिक का संकट पर्यावरण के लिए ही नहीं, मानव सभ्यता के लिए भी बड़ी चुनौती के रूप में मुंह बाए खड़ा है। उपभोक्तावाद की संस्कृति ने इसमें अहम भूमिका निबाही है। इसके कारण ही पर्यावरण संरक्षण के लिए बने कानून केवल किताबों की शोभा बनकर रह गए हैं। असलियत यह है कि प्लास्टिक कचरे का संकट मानव सभ्यता के लिए भयावह रूप अख्तियार करता जा रहा है। इसके विस्तार में उपभोक्तावाद में आकंठ डूबी हमारी जीवन शैली की अहम भूमिका है। इससे महानगर ही नहीं छोटे शहर, कस्बे और गांव भी अछूते नहीं रहे।

रोजमर्रा के कामों में प्लास्टिक का उपयोग इस बात का साक्षी है कि वह चाहे दूध हो, सब्जी हो, किराने का सामान ही क्यों न हो सब प्लास्टिक के थैलों में आ रहे हैं। यह भी सच है कि खान-पान में इस्तेमाल होने वाली गर्म वस्तु तो प्लास्टिक के संपर्क में आने पर रासायनिक क्रिया से जहरीली हो जाती है, जो मानव के लिए जानलेवा साबित हो सकती है। इससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी होने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इसके कण संक्रमण का कारण बन रहे हैं। यही नहीं हवा में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक कण सांस के जरिए फेफड़ों को प्रभावित कर सकते हैं। फूड चेन और मानव भोजन में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी जहरीले रसायनों केअसर को सुनिश्चित करती है। इस प्रकार ये कण शाकाहारी या मांसाहारी भोजन के जरिए मानव शरीर में पहुंच कर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। हर साल समुद्र में 5 से 14 मिलियन टन प्लास्टिक पहुंच रहा है। यह टूटकर माइक्रोप्लास्टिक में बदल जाता है। इंसान ही नहीं, पशु-पक्षियों के शरीर में भी पहुंच रहा है। टूथपेस्ट, शैम्पू और हेयर क्रीम के जरिए ये कण हमारे शरीर में पहुंच रहे हैं। कार के टायरों से हर 100 किलोमीटर पर 20 ग्राम प्लास्टिक की धूल उड़ती है। माइक्रोप्लास्टिक भौतिक, एंजाइमेटिक और माइक्रोबियल गिरावट की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरता है। लेकिन यह पूरी तरह टूटता नहीं है। समुद्र में प्राथमिक माइक्रोप्लास्टिक का औसत वार्षिक आंकड़ा 7.5 मिलियन टन होने का अनुमान है। यह भी अहम तथ्य है कि जलीय पर्यावरण में माइक्रोप्लास्टिक को हटाना अत्यंत कठिन है। इस प्रकार आने वाले दिनों में माइक्रोब और नैनोप्लास्टिक बहुत बड़ी समस्या बनने वाली है। इसके चलते दुनिया में करोड़ों लोगों के प्रभावित होने की आशंका है। एक अनुमान के मुताबिक समुद्र में अब कोई जलीय जीव प्लास्टिक के प्रभाव से बचा नहीं रह सका है।

प्लास्टिक के भयावह खतरों को देखते हुए दुनिया के 40 देश प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध लगा चुके हैं। इनमें फ्रांस, चीन, इटली, रवांडा और केन्या शामिल हैं। लेकिन भारत का इस बारे में रुख समझ से परे है। देश में हर साल करीब 56 लाख टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन होता है। इसमें से लगभग 9205 टन प्लास्टिक को रिसाइकिल कर दोबारा उपयोग में लाया जाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार अकेले देश की राजधानी दिल्ली में हर रोज 690 टन कचरा निकलता है। जबकि चेन्नई में 429 टन,  कोलकाता में 426 टन और मुंबई में 408 टन कचरा रोजाना निकलता है। पूरे देश की हालत क्या होगी, यह विचार का विषय भी है और हालात की भयावहता का सबूत भी। इस बारे में हमें आयरलैंड से सबक सीखना होगा जहां प्लास्टिक के इस्तेमाल पर 2002 में ही पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया था। 

यह जल, मृदा, वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। यह भी कि इसके निर्माण में गुणवत्ता नियमों का किंचित भी पालन नहीं किया जाता। जाहिर है यह सब सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक ढांचे को भी खंड-खंड कर रहा है। इसका मूल कारण हमारे यहां प्लास्टिक के कुशल प्रबंधन का सर्वथा अभाव है। इसके लिए जरूरी है हम सब अपनी जीवन शैली में बदलाव लाएं,अन्यथा यदि यही हालात रहे तो बहुत देर हो जाएगी। उस समय हम हाथ मलते रह जाएंगे और हमारे पास करने को कुछ नहीं होगा। अब देखना यह है कि साल के अंत में कनाडा की राजधानी ओटावा में दुनिया के देशों के सम्मेलन में बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण पर रोक लगाने पर कहां तक सहमति बनती है। दरअसल इसमें सबसे बड़ी बाधा प्लास्टिक संधि के कुछ प्रावधानों पर विकसित और विकासशील देशों की असहमति है। संधि में जो सबसे बड़ा मुद्दा है वह प्लास्टिक उत्पादन में कटौती से जुड़ा है।

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हाई एंबिशन गठबंधन प्लास्टिक प्रदूषण से निजात पाने की दिशा में कचरे के निस्तारण के साथ इसके उत्पादन को सीमित करने का पक्षधर है, वहीं ग्लोबल कोलिएशन सस्टेनेबिल प्लास्टिक ग्रुप है, जो विकासशील देशों के लिए प्लास्टिक उत्पादन में बाध्य होकर कटौती किए जाने को व्यावहारिक नहीं मानता है। ऐसा मानने वाले देश हैं भारत, रूस, ईरान, चीन, सऊदी अरब, क्यूबा और बहरीन जो 
ये प्लास्टिक जनित प्रदूषण से निपटने को स्वैच्छिक लक्ष्य के हिमायती हैं। असल में प्लास्टिक उत्पादन का सीधा सम्बन्ध तेल और गैस उद्योग से जुड़ा हुआ है। इसकेउत्पादन में इस्तेमाल होने वाले अहम पदार्थ कच्चे तेल एवं नेचुरल गैस से ही हासिल किए जाते हैं। यही वह अहम वजह है जिसके चलते पेट्रोकैमिकल्स कंपनियों के साथ जीवाश्म ईंधन पर निर्भर देश प्लास्टिक संधि के कठोर प्रावधानों का विरोध कर रहे हैं। यदि संधि के मसौदे पर सहमति बनती है, तो यह समूची दुनिया के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। 
-ज्ञानेन्द्र रावत
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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