जिस मैदान पर चौके-छक्के जमाए, उसी के बाहर बेचे गोलगप्पे लेकिन न निराश हुए, न मानी हार, युवाओं के लिए बने मिसाल

शिक्षा के साथ खेल भी अनिवार्य होंगे तभी मन से मजबूत बनेगी देश की युवा पीढ़ी

जिस मैदान पर चौके-छक्के जमाए, उसी के बाहर बेचे गोलगप्पे लेकिन न निराश हुए, न मानी हार, युवाओं के लिए बने मिसाल

किसी ने खेत में मजदूरी की तो किसी ने अखबार और सब्जी बेची पर हार नहीं मानी, बहुत से खिलाड़ियों के सपने टूटे, बहुतों के सपने अधूरे रह गए लेकिन जिन्दगी में हार नहीं मानी।

जयपुर। आज करोड़ों में खेल रहा क्रिकेटर यशस्वी जायसवाल कभी मुम्बई में उसी ग्राउण्ड के बाहर खड़े होकर गोलगप्पे बेचा करता, जहां दिन में खूब चौके-छक्के जमाता। शाम को वे ही साथी क्रिकेटर उसके हाथ से गोलगप्पे खाते, जो दिन में उसके बल्ले से निकलते हर शॉट पर तालिया बजाते। एक बालक के लिए यह एक असहज स्थिति होती थी।

क्रिकेटर बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए यशस्वी को बहुत-कुछ सहना पड़ा। मात्र 11 साल की उम्र में घर छोड़ा, मुम्बई में रहने का कोई ठिकाना नहीं था तो आजाद मैदान के बाहर टेंट में रातें गुजारीं। गुजारे के लिए तबेले में नौकरी कर दूध बेचा। पर हार नहीं मानी। वही यशस्वी आज भारत की टेस्ट, वनडे और टी-20 हर फॉर्मेट की टीम का हिस्सा बना है। 

देश में और भी प्रतिभाशाली खिलाड़ी पैदा हुए हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने के लिए संघर्ष किया। इन खिलाड़ियों को मेडल मिले, तालियां मिलीं पर सरकार और समाज से वो समर्थन नहीं मिला, जिसकी उन्हें दरकार थी। धुन के पक्के इन खिलाड़ियों ने विपरीत परिस्थितियों से समझौता नहीं किया, बल्कि संघर्ष किया। अपने सपने को पूरा करने और साथ ही घर-परिवार को चलाने के लिए मेहनत- मजदूरी से भी गुरेज नहीं किया। पर आज के छात्र थोड़ी सी कठिनाई भी सहन नहीं कर पाते। परीक्षा में असफलता का खौफ दिलो-दिमाग में इस कदर हावी रहता है कि अपना जीवन समाप्त कर लेने जैसा कदम इन युवाओं के लिए बड़ी छोटी बात हो गई है। बहुत से खिलाड़ियों के सपने टूटे, बहुतों के सपने अधूरे रह गए लेकिन जिन्दगी में हार नहीं मानी। मेहनत-मजदूरी करके भी अपना परिवार चला रहे हैं।

सम्मान मिला, रोटी की चिन्ता नहीं मिटी
हरियाणा में रोहतक के लाखन माजरा के संजय ने वुशू खेल में सात बार हरियाणा स्टेट और नौ बार राष्ट्रीय चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया। संजय को वाहवाही तो खूब मिली लेकिन रोटी की चिन्ता दूर नहीं हुई। पदक जीतकर मीडिया की सुर्खियों में रहा संजय आखिर अपने खेल को बचाए रखने और परिवार का पेट पालने के लिए दिहाड़ी मजदूर बनने को विवश हो गया। पर घर-परिवार का खर्च और बूढ़ी मां के इलाज की जिम्मेदारी के चलते ये प्रतिभावान खिलाड़ी खेल से दूर होता चला गया। 

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बिहार की दंगल गर्ल भी कर रही मजदूरी
बिहार के कैमूर जिले के गांव सहूका की दंगल गर्ल पूनम यादव ने कुश्ती में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कई मेडल जीते। पूनम शाहाबाद केसरी दंगल की विजेता बनी लेकिन अपनी प्रतिभा को निखारने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं मिला और लॉकडाउन में पिता की नौकरी जाने के बाद पूनम को परिवार की जिम्मेदारी संभालने के लिए मजदूरी करनी पड़ी।

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घर तो नौकरी से चलता है
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तलवारबाज विजेन्द्र सिन्हा ने राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीते। सरकार ने अलंकरण सम्मान में उन्हें मेडल पहनायाए सम्मान दिया लेकिन नौकरी नहीं मिली। विजेन्द्र कहते हैं कि घर तो नौकरी से चलता है। अलंकरण समारोह में पहुंचने के लिए किराए के पैसे भी साथियों से जुटाने पड़े। संजय खेतों और ईंट भट्टों पर मजदूरी को विवश है। छत्तीसगढ़ के कवर्धा के सुमित बंजारा ने बेसबॉल के खेल में राष्ट्रीय स्तर पर शानदार प्रदर्शन कर अवार्ड तो पाया पर अपने डाइट का खर्च उठाने के लिए अखबार बेच रहा है। वहीं बिलासपुर की पैरा एथलीट संगीता निषाद घरों में काम करने के मजबूर है। 

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मेडल जीते पर नहीं मिली प्राइजमनी, आज मजदूरी को मजबूर है मोहन
गंगानगर के जैतसर मंडी के नजदीक गांव 5जीबी के पैरा खिलाड़ी मोहनलाल की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। मोहन ने तैराकी और पावरलिफ्टिंग खेलों में कई मेडल जीते। लेकिन न कोई नौकरी मिली और न ही जीते हुए मेडल की प्राइजमनी। मजबूरी में मोहन लाल गृहस्थी चलाने के लिए मजदूरी करने को विवश हैं। वे घरों में रंगाई- पुताई का काम करते हैं। मोहन लाल ने जोधपुर में हुई पैरा स्टेट चैंपियनशिप में तैराकी और पावरलिफ्टिंग में पांच स्वर्ण और दो कांस्य पदक जीते थे। उन्हें उम्मीद थी कि करीब छह लाख रुपए प्राइज मनी मिलेगी, लेकिन नहीं मिली।

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